लोकल के लिए वोकल : नारा नहीं भारत के मर्ज की दवा है

बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ और स्वच्छता अभियान के नारे के बाद ‘लोकल के लिए वोकल’ कोई नारा मात्र नहीं है. यह भारत की जरूरत है. भारत की तकदीर इसी से बदलेगी.

प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुआत की और लोकल के लिए वोकल का नारा दिया. मेरी समझ से यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए सबसे तीन दमदार नारों में से हैं.

आत्मनिर्भर भारत अभियान का बहुत से लोग मज़ाक उड़ाने लगे हैं. मजाक उड़ाया जा सकता है क्योंकि यह सबसे आसान काम है लेकिन क्या भारत को सचमुच इस मंत्र की ज़रूरत नहीं? आइए कुछ उदाहरणों से समझते हैं.

अगरबत्ती पर ड्यूटी 2011 में 30%  से घटाकर 10% और 2018 में और घटाते हुए 5 % कर दी गई थी.  इससे अगरबत्ती के लिए आयात पर हमारी निर्भरता जो कबी सिर्फ 5 फीसदी हुआ करती थी, अब वह 80 फीसदी हो गई है. हम हर साल 4000 करोड़ की अगरबत्ती आयात करते हैं साहब. चीन और ताइवान से इसका 90 % आता है.

दिल्ली में चांदनी चौक का किनारी बाज़ार कपड़ों में लगने वाली ज़री, गोटे आदि का सबसे बड़ा बाज़ार है. देखें तो ये सलमा-सितारे, गोटे आदि कितनी मामूली चीज़ें हैं. अगर भारत ने मानकर चलते हैं कि अलीगढ़ या सोनीपत या किसी और एरिया को चुन लिया होता कि यहां तो बस सलमा सितारे बनेंगे. भारत अपनी सारी ज़रूरतें अपने दम पर पूरी करेगा. क्या फ़र्क पड़ता जानते हैं!

भारत सालाना 12,000 करोड़ के सलमा सितारे आयात करता है. लॉकडाउन के तीसरे हफ़्ते में राजस्थान के हैंडीक्राफ्ट मैन्युफैक्चरर और एक्सपोर्टर संघ चिंतित था कि अगर चीन से माल 10 दिन और नहीं आया तो हमारी सारी यूनिट्स बन्द हो जायेंगीं और 15 से 18 हजार लोग अकेले राजस्थान में बेकार हो जाएंगे. सोचिए पूरे देश में क्या होगा! अगर हम इस छोटी सी चीज को बनाने लगें, जो क्वालिटी और कॉस्ट दोनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कर सके तो कितना खेल बदल जायेगा.

और बात इतनी भर ही नहीं है. हमारा पड़ोसी बांग्लादेश जो कपड़ा निर्माण में भारत को पछाड़ चुका है वह इसका भारत से भी बड़ा आयातक है. तो अगर इसमें हम आत्मनिर्भर हो जाते तो न सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी करते बल्कि निर्यात भी कर रहे होते.

ये तो हुई बहुत छोटी-छोटी चीजों की बात, थोड़ा बड़े की बात करता हूँ. हम सालाना 60,000 करोड़ का बिजली का सामान आयात करते हैं. दुनिया के मुक़ाबले 1/20 वीं लागत पर हम अपने अंतरिक्ष मिशन में झंडे गाड़ लेते हैं लेकिन बिजली का सामान बनाने में हम कॉस्ट में मार खा जाते हैं, क्यों! हम ब्रांडिंग करना नहीं जानते. दूसरे देशों के

दुनिया जानती है कि Y2K से भारत के ब्रेन्स ने दुनिया को बाहर निकाला था। भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर दामाद की तरह अमेरिका में ट्रीट होते हैं और गूगल का सीईओ, माइक्रोसॉफ्ट का सीईओ सारे तोपची भारतीय हैं. गूगल, फेसबुक या अलीबाबा बनाया भारतीयों ने है लेकिन यह भारत का प्रोडक्ट नहीं है. सबसे ज़्यादा इनके उपयोगकर्ता भारतीय हैं लेकिन भारत को उससे कुछ नहीं मिलता है. हमारा अपना प्रोडक्ट क्यों नहीं हुआ ऐसा!

लोग कह रहे हैं कि सरकार लोगों के हाथ में पैसे ज़्यादा डाल दे, डिमांड बढ़ाया जाए इस रास्ते. तो आपके हाथ में सरकार पैसा डाल दे तो शादी के सीजन में आपके घरों में ज़्यादा लहंगे या जड़ाऊ चीजें खरीदी जाएं यानी इम्पोर्ट बढ़े चीन से. अगरबत्तियां ज़्यादा जलाएं, नए फ्रीज़, नए AC नया iphone आए… यानी इम्पोर्ट

सरकार ने कह दिया मॉनेटरी मेजर्स लेगी, फिस्कल मेजर्स नहीं. आप अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाइए, गुणवत्ता बढ़ाइए, स्केल अप करके अपना कॉस्ट कम करिए. आयात पर कर लगाने के कंज़र्वेटिव मेजर्स महीने दो महीने से ज़्यादा नहीं लिए जा सकते वरना अन्य देशों ने जवाबी कार्रवाई की तो हम बर्बाद हो जाएंगे.

सूक्ष्म हो, लघु हों, मझोले हों या बड़े उद्योग अपना अच्छा समान बनाएं, ब्रांड बनाएं. इन कंपनियों को सहयोग देने के लिए भारतीय थोड़े समय तक मन मारकर इनका साथ दें. कंपनियों को समझना होगा कि उपभोक्ता उनका महंगा सामान खरीदकर उनपर उपकार कर रहा है और उपकार बहुत थोड़े दिन के लिए होते हैं.

‘आत्मनिर्भर भारत’ को केवल प्रधानमंत्री की सोच या कल्पना समझें या चाहे कुछ भी न समझें, लेकिन याद रखिए यह भारत की ज़रूरत है.

यह भारत के दर्द की दवा है.

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