अपने अंदर के श्रीराम के दर्शन करें…

श्रीराम हर युग में आते हैं. श्रीराम का स्वरूप, उनका चित्त, उनकी प्रकृति ऐसी है कि वह मर्यादापुरुषोत्तम हो जाते हैं. यानी अगर ईश्वर ने पुरुष की जिस सर्वोत्तम रूप की कल्पना की हो, श्रीराम उन सभी गुणों से युक्त हैं. इसलिए वह मनुष्य रूप में अविनाशी ईश्वर के प्रतीक हैं. त्रेतायुग में वे दशरथनंदन हैं. उन्हें 14 वर्षों का वनवास होता है. 14 वर्षों तक श्रीराम अपनी जन्मभूमि साकेत नगरी यानी अयोध्या से दूर रहे. हर प्रकार के संघर्ष किए और वह सब धारण किया जिसे धारण करके कोई भी व्यक्ति पूजनीय, वंदनीय हो जाता है.

हम कलियुग में है. कहते हैं कलि बहुत संघर्ष कराता है. वास्तविक अधिकारी को उसका अधिकार प्राप्त करने में अब उससे भी अधिक संघर्ष करना होता है जो श्रीराम ने त्रेता में किया था. संघर्ष अधिक है तो संघर्ष की अवधि भी अधिक होगी. श्रीराम न जाने कितने वर्षों से बनवास में हैं, अपनी जन्मभूमि की तलाश में. खैर, राम का पथ ऐसा है जिस पर श्रीराम के अतिरिक्त कोई चल ही नहीं सकता. वह अंतहीन प्रतीक्षा आज भी वैसी ही है.

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हमें साकेत नगरी में, अयोध्या में श्रीराम की पावन प्राकट्यस्थली का निर्णय क्या होगा, कब होगा, किसके पक्ष में होगा यह तो राम जानें लेकिन श्रीराम हमारे मन में, हमारे आचरण में, हमारी परंपराओं में न सिर्फ छाए हुए हैं, बल्कि समाए हुए हैं. अयोध्या में श्रीराम के दर्शन का सौभाग्य मिले न मिले, मिले तो कब मिले, और जब मिले तब मिले हमें अपने भीतर के श्रीराम के दर्शन का श्रम करना चाहिए. एक कवि ने क्या सुंदर कहा है- श्रीराम तो स्वयं में तीर्थ हैं जो जीवनभर धाम की तलाश में भटकते रहे. जो सूर्य होकर, दीप सा ही जलते हुए संतुष्ट और बिना किसी मैल के मुस्कुराता रहे, वह श्रीराम हैं. मन को धाम समझकर श्रीराम के दर्शन हो सकते हैं?

संभवतः हां. और सच पूछें तो यह कला हमें सीखनी होगी क्योंकि कलिकाल में राम के अस्तित्व का निर्णय उन हाथों में हैं जो स्वयं श्रीराम के प्राकट्य दिवस पर राम के स्मरण के लिए होने वाले अवकाश का लाभ उठाते हैं.

आपकी आत्मा श्रीराम हैं, आपका ह्रदय सीता. आत्मा में हृदय है या हृदय में आत्मा यह विषय ही नहीं है और न ही इसका निर्णय़ किया जा सकता है. दोनों एक दूसरे में विलीन रहते हैं, रमे हुए रहते हैं इसलिए राम और सीता- सीताराम हैं.
आपका मस्तिष्क रावण है जो आपकी आत्मा के भीतर से आपके ह्रदय को चुरा लेता है. आत्मा और हृदय का अलग होना शरीर को अधूरा कर देता है. इस अपूर्णता को तुरंत पूरा करने की आवश्यकता है. दिमाग दिल को अपने वश में करने की कोशिश करता है- छल से, बल से, माया से. इसके लिए वह तर्क देता है. ऐसे-ऐसे तर्क जिसके बारे में उसे भी भान है कि ये बेमतलब हैं. पर वह तर्क देता है. रावण का नाना माल्यवान और रावण का ससुर मय दानव दोनों बड़े विद्वान थे. दोनों ने दशानन को समझाया कि राम प्रहार के लिए नहीं स्वीकार की चीज हैं. उनसे सबकुछ पा सकते हो परंतु प्रहार से नहीं, हृदय के स्वीकार से. दस शीश थे दशानन के यानी दस दिमाग से वह सोच सकता था. कहते हैं न ज्यादा जोगी मठ उजाड़. एक शीश होता, एक से सोचता. तो संभवतः उसे अपनी भूल समझ आ जाती, वह उसे सुधार लेता. पर क्या कहें, दस दिमाग के बहुत लाभ नहीं हैं. यह कलियुग है. यहां पांच परिपक्व और ज्ञानी मस्तिष्क यह अनुसंधान कर रहे हैं कि क्या राम वास्तव में थे? यह अलग बात है कि इस अनुसंधान के बीच कई ऐसे पर्व आते हैं जब उन्हीं श्रीराम की गौरवगाथा और प्रभाव का मन में चिंतन करने को अवकाश की व्यवस्था होती है और सत्-चित-आनंद उस राम के अस्तित्व का अनुसंधान करने वाले उस अवकाश पर जाते हैं. सच्चिदानंद उनके लिए विश्राम का मार्ग खोलते हैं.

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रावण का महल लंका में एक पहाड़ी पर बना था जहां से वह लंका की पूरी धरती पर निगाह रखता था. कहते हैं जब श्रीराम ने लंका में पड़ाव डाला और रावण का मस्तिष्क जब-जब विचलित हुआ उसने अपने परकोटे से एकबार श्रीराम के दर्शन किए. श्रीराम के श्वेतचित्त, प्रफुल्लित मुखमंडल को देखकर उसे बड़ा विश्राम मिलता था. जो शत्रु को भी विश्रामचित्त करें वह श्रीराम हैं. श्रीराम तो किसी को सदा के लिए शत्रु मानते ही नहीं. निःसंदेह श्रीराम वे सभी जन विश्राम की स्थिति में होंगे जो अपना दिन-रात यह सिद्ध करने के उद्यम में लगा रहे हैं कि श्रीराम कपोल-कल्पना हैं, साकेत में उनका अवतरण हुआ ही न था. इस तरह वे भी दिन-रात श्रीराम का नाम रट रहे हैं- चाहे, अनचाहे.

श्रीराम के नाम का स्मरण चाहकर करने में जितना पुण्य मिलता है उतना ही अनचाहे स्मरण में मिलता है. नारदजी से वायु ने पूछा कि हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रहलाद ऐसा नारायणभक्त कैसे हुआ? नारद ने कहा कि जब हिरण्यकश्यपु का तप विफल रहा और वह अपनी पत्नी के पास आकर उसके साथ रमण कर रहा था. उसी दौरान दैवयोग से उसकी पत्नी ने पूछा कि नाथ आपका तप कैसे विफल हुआ. कामरत हिरण्यकश्यपु ने कहा कि पेड़ पर बैठे दो पंक्षी ऊँ नमो नारायणाय का बड़े ही उच्च स्वर में लगातार पाठ कर रहे थे. उससे मेरा ध्यान भंग हो गया. नारायण के इसी नाम का स्मरण करते हुए असुरराज स्खलित हुआ था. इस प्रकार प्रहलाद के बीज नारायण नाम के स्मरण के साथ पड़े थे और वह अभूतपूर्व नारायण भक्त हुए. अनचाहे या द्रोहवश भी स्मरण किया हुआ राम का नाम बड़े काम आ जाता है. अदालत में सुना है राम के पक्ष में प्रमाण देने वालों का प्रतिरोध करते किताबें फाड़ी जा रही हैं, आक्रोश व्यक्त किए जा रहे हैं. द्रोहियों के समस्त छलबल के लिए भी राम के पास कल्याण का वरदान ही है. छल-बल राम का काम ही नहीं, वह मर्यादा की सीमाएं नहीं लांघते.

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रावण ने अपना छल-बल दिखाया, सीता का हरण किया. छल से रावण ने माया रचाई और श्रीराम का कटा शीश दिखाकर सीताजी को भरमाने का पूरा प्रयास किया. माया से, जैसे रावण ने अपनी विलासता अपना ऐश्वर्य दिखाकर सीताजी को प्रलोभन दिया कि आपको पटरानी बनाऊंगा और मंदोदरी आदि रानियां आपकी सेविका बनेंगी, उसी प्रकार दिमाग तरह-तरह के स्वांग रचता है. आत्मा का हृदय के साथ मिलन, एकाकार होना बहुत आवश्यक है इसके लिए युद्ध भी करना पड़े तो भी करना चाहिए. युद्ध पवित्रता के लिए और प्रतिदिन करना होगा. न्यायालय में वही युद्ध जारी है. इस युद्ध में सीताराम की विजय तभी होगी जब युद्ध, राम द्वारा स्थापित नीति से लड़ा जाए.

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इस युद्ध में लक्ष्मण का साथ आवश्यक है. अपनी चेतना को लक्ष्मण जानिए जो हमेशा आपके साथ है, आपके भीतर. यह चेतना मज़बूती से पैर जमाये रखती है, आपके अंगरक्षक की तरह. बिल्कुल वैसे ही जैसे श्रीलक्ष्मणजी सदैव श्रीसीताराम के साथ रक्षा में तैनात होते हैं. लक्ष्मण चौदह वर्षों तक कभी सोए ही नहीं, उसी तरह आपकी चेतना कभी सोनी नहीं चाहिए, हमेशा जाग्रत रहनी चाहिए आपकी पहरेदारी के लिए. चेतना आवश्यकता पड़ने पर आपकी तरफ से युद्ध भी लड़ती है ताकि आपकी पवित्रता, आपका मान-सम्मान बना रहे. यह युग भिन्न है इसलिए चेतना को ज्यादा बली होना चाहिए. उसका संघर्ष अब मात्र चौदह वर्षों का नहीं रहेगा. उसे राम की कसौटी पर कहीं ज्यादा कसा जाना है.

और हनुमान के बिना तो राम का कोई काम अपने अंजाम पर पहुंचता ही नहीं. आपकी अंतर्दृष्टि ही हनुमान हैं. आपका शौर्य, आपका साहस जो उचित समय पर हर प्रकार के दायित्व निभाने को प्रस्तुत रहता है जैसे हनुमान जी तत्पर रहते हैं अपने सीतारामजी की सेवा के लिए, निःस्वार्थ और निष्काम सेवा के लिए.

हनुमानजी ने सीता-राम का मिलन कराकर सीताराम बनाने में अवर्णनीय योगदान दिया वैसे ही आपकी अंतर्दृष्टि यदि निष्काम यानी बिना लाग-लपेट के एकनिष्ठ होकर काम करती रहे तो आत्मा और हृदय का पुनर्मिलन होता है. ऐसा पावन मिलन कि संसार उसका उल्लास मनाता है जैसे सीताराम जी के मिलन पर संसार मनाता है.

विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार।।

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