
बिहार, एनडीए में सीट शेयरिंग आखिर इतना पेचीदा क्यों हो गया है. ऐसी कौन सी फांस है कि बात नहीं बन पा रही. न्यूजऑर्ब360 का विस्तृत विश्लेषण
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए पहले दौर के मतदान वाली सीटों के लिए नामांकन की तिथि आ गई है लेकिन न तो एनडीए और न ही महागठबंधन अपने साझीदारों के साथ सीट शेयरिंग के फॉर्मूले को फाइनल कर पा रहा है. महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ही एकमात्र बड़ा दल है इसलिए उसके सहयोगी दलों को राजद की बात मानने के अलावा कोई विशेष विकल्प होगा नहीं.
बिहार, राजनीतिक पंडितों का कहना है राजद ने लोकसभा चुनावों में कई छोटे दलों को उनकी हैसियत से अधिक हिस्सा देकर उनका पानी नापने की कोशिश की थी लेकिन राजद समेत सारे चारों खाने चित हो गए. इसलिए राजद विधानसभा चुनाव में सहयोगियों के साथ ज्यादा रहमदिल नहीं होने वाला. और यही हो भी रहा है.
जीतनराम मांझी गठबंधन छोड़कर एनडीए में आ चुके हैं. उपेंद्र कुशवाहा ही 28 सितंबर की देर रात दिल्ली में भाजपा नेताओं के साथ बैठक हुई और किसी फॉर्मूले पर पहुंचने का खाका तैयार होने की बात कही जा रही है. यानी ये दोनों दल महागठबंधन से विदा हो चुके हैं. मांझी एनडीए में आ चुके हैं और कुशवाहा का मंथन जारी है. पर सबसे ज्यादा रार तो एनडीए में ही है.
बिहार, एनडीए की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के अध्यक्ष चिराग पासवान मोल-तोल के लिए जदयू और नीतीश पर लगातार हमलावर हैं. माना जाता है कि एनडीए से बाहर जाएंगे नहीं, ऐसा बस ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए कर रहे हैं. लोजपा नेताओं की भी भाजपा के नेताओं के साथ दिल्ली में 29 सितंबर (सोमवार) की रात बात हुई. बताया जाता है कि यह बात अब अंतिम दौर की बात है.
लोजपा के लिए एक फॉर्मूला दे दिया गया गया है. बिहार, अगर वह राजी होती है तो ठीक है नहीं तो लोजपा के बाहर निकलने के बाद उसके हिस्से की सीटों में से कुछ कुशवाहा को दी जाएंगी बाकी भाजपा और जदयू आपस में बांट लेंगे. लोजपा को विधानसभा की 25 सीटों के साथ राज्यपाल के कोटे से मनोनीत होने वाले दो विधान पार्षद और हाल ही में खाली हुई वाल्मिकीनगर लोकसभा सीट का प्रस्ताव दिया गया है. नीतीश की ओर से यह दरियादिली की अंतिम खेप है. एक अक्टूबर तक फैसला हो जाने की उम्मीद है.
पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर एनडीए में सीटों को लेकर इतनी जिच क्यों है? इसे समझने के लिए आपको 2015 के विधानसभा के परिणामों को ध्यान से समझना होगा.
49 सीटें ऐसी हैं, जहां 2015 के चुनाव में जदयू और भाजपा दोनों ने एक-दूसरे को पटकनी दी थी. इसके अलावा सात विधायक राजद छोड़कर जदयू में शामिल हुए हैं. जाहिर है जदयू ने इन्हें चुनाव लड़ाने का वादा किया होगा पर ये सातों सीटों किसके खाते की हैं. भाजपा नेताओं का कहना है कि आखिर जदयू अपनी तरफ से इन सातों सीटों को अपने खाते में कैसे मान सकती है. इस पर भी रार है. यानी 56 सीटें (49+7) ऐसी हैं जिसको लेकर मामला फंसा है. प्रदेश स्तर के नेता इस पर कोई आमराय नहीं बना सके. अब इसे राष्ट्रीय स्तर पर निपटाया जाएगा.
2015 के चुनाव में भाजपा और जदयू एक दूसरे के खिलाफ लड़े थे. विगत चुनाव में जहां जदयू ने भाजपा को 27 सीटों पर हराया था तो भाजपा ने जदयू को 22 सीटों पर मात दी थी.
दरौंदा, फुलपरास, बेनीपुर, इस्लामपुर, महाराजगंज, लौकहा, जीरादेई, नालंदा, एकमा, निर्मली, परबत्ता, अगिआंव, महनार, सुपौल, गोपालपुर, राजपुर, मैरवां, रानीगंज, अमरपुर, दिनारा, सरायरंजन, रूपौली, बेलहर, नवीनगर, मटिहानी, बिहारीगंज व राजगीर सीटों पर 2015 में जदयू ने भाजपा को हराया था.
वहीं चनपटिया, कल्याणपुर, पिपरा, मधुबन, अमनौर, सिकटी, कटिहार, जाले, कुढ़नी, मुजफ्फरपुर, बैकुंठपुर, सीवान, लखीसराय, बिहारशरीफ, बाढ़, दीघा, भभुआ, गोह, गौराबौराम, हिसुआ, वारसलीगंज व झाझा में भाजपा ने जदयू को मात दे दी थी.
अब जिन सीटों पर जदयू-भाजपा ने एक-दूसरे को हराया, उन पर अब किसकी दावेदारी होगी, इस पर भी मंथन हो रहा है. इसके अलावा राजद छोड़ जो सात विधायक जदयू में शामिल हुए उनमें पातेपुर की विधायक प्रेमा चौधरी, गायघाट से महेश्वर यादव, परसा से चंद्रिका राय, केवटी से फराज फातमी, सासाराम से अशोक कुमार कुशवाहा, तेघड़ा से वीरेन्द्र कुमार और पालीगंज से जयवर्धन यादव हैं. इन विधायकों के खिलाफ कई सीटों पर भाजपा चुनाव लड़ी थी पर वह हार गई थी. इनमें कई सीटें ऐसी हैं जिस पर 2015 के चुनाव से पहले भाजपा ही जीतती रही है. उदाहरण के लिए सासाराम सीट को ले लें. यह भाजपा की परंपरागत सीट रही है लेकिन पिछली बार राजद के अशोक कुमार ने भाजपा के चार बार के विधायक जवाहिर प्रसाद को हरा दिया था. अब अशोक कुमार जदयू के पाले में हैं पर भाजपा अपनी परंपरागत सीटें कैसे छोड़ दे?
केंद्रीय नेताओं ने जो वैकल्पिक फॉर्मूला तैयार किया है उसमें सीटों के बंटवारे में 2010 को आधार बनाने की बात हुई है. तब जदयू और भाजपा एनडीए में बस दो ही दल थे और साथ-साथ लड़े थे. इसके साथ ही यह भी देखा जाएगा कि 2020 में जो सीट जिस दल के खाते में गई थी उस पर 2015 के चुनाव में किसका कब्जा हुआ. अगर यह आधार बना तो दोनों दल को अपनी-अपनी कुछ परम्परागत सीटों पर समझौता करना पड़ सकता है.
उदाहरण के लिए सासाराम के अलावा पालीगंज, परसा जैसी सीटें भाजपा की परम्परागत सीटें मानी जाती हैं. साल 2015 के पहले इन सीटों पर भाजपा का कब्जा रहा है. अब चूंकि राजद छोड़कर जदयू में आने वाले सभी मौजूदा विधायक हैं. इस कारण इनको इस बार के चुनाव में फिर से मौका मिलना तय माना जा रहा है. ऐसे में भाजपा को सीट बंटवारे में परम्परागत सीटों से समझौता करना पड़ सकता है. बैंकुठपुर, दीघा जैसी कई सीटें जदयू की परंपरागत रही हैं. इस बार यहां से भाजपा के विधायक हैं. फॉर्मूले में ये सीटें भाजपा के पास चली जाएंगी.
2010 तक भाजपा और जदयू के बीच एक बेहतर समन्वय रहा है. भाजपा शहरी सीटों और मध्य बिहार पर ज्यादा फोकस करती थी तो कोसी का क्षेत्र जीतने का जिम्मा जदयू निभाती थी. पर अगर दोनो दलों को कुछ परंपरागत सीटें गंवानी पड़ी तो उसकी भरपाई एक दूसरे के इलाके में सीटों के रूप में होगी. हो सकता है कि मधेपुरा, सहरसा व सुपौल जिले में भाजपा पिछले चुनाव की तुलना में इस बार अधिक सीटों पर चुनाव लड़े.
बिहार, एक डर जो गठबंधन को और सता रहा है वह है बगावत का. अगर परंपरागत सीटें छोड़नी पड़ती हैं तो वहां पर पार्टी का पुराना कैडर नाराज होता है. संगठन के अंदर बगावत की पूरी आशंका रहती है और हो सकता है कि बहुत से बागी मैदान में उतरकर खेल खराब कर दें. भाजपा के साथ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ऐसा हुआ है. इसके संकेत मिलने लगे हैं. हाल ही में भाजपा के नेताओं ने सुशील मोदी की गाड़ी का घेराव कर लिया था. दोनों दलों के लिए इस चुनौती से भी निपटना एक मुश्किल काम होगा.
ऐसे में एक और फॉर्मूला आजमाया जा सकता है- एक दूसरे के उम्मीदवारों को अपने दल से लड़ाना. जैसे सासाराम सीट अगर भाजपा के खाते में जाती है तो भाजपा के टिकट पर मौजूदा विधायिक अशोक कुमार लड़ सकते हैं जो हाल ही में जदयू में शामिल हुए हैं. अगर उम्मीदवार जिताऊ होंगे तो दोनों दल इसके लिए राजी हो जाएंगे.
