भाजपा का जोरदार वारः एक तीर से तीन शिकार

बात 2013 की है. भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया तो इससे नाराज जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया. उन्हें एनडीए से परेशानी नहीं थी लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के नाम पर एतराज था. नीतीश ने अकेले लोकसभा चुनाव लड़ा और मात्र दो सीटें जीत सके. बाद में उन्होंने लालू प्रसाद के राजद और कांग्रेस के हाथ थामा और 2015 में फिर से मुख्यमंत्री बने. 2020 में नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री पद पर बैठने की लालसा के साथ भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं.

एनडीए के एक अन्य साथी राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की पार्टी को मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार पर एतराज है. लोजपा की कमान अब चिराग पासवान संभालते हैं और उन्होंने साफ कर दिया है कि उन्हें नहीं लगता कि नीतीश कुमार बिहार को अच्छा भविष्य दे सकते हैं. एनडीए में भाजपा के साथ जदयू और लोजपा भी हैं लेकिन लोजपा एनडीए के साथ चुनाव नहीं लडेगी. लेकिन लोजपा भाजपा के खिलाफ भी नहीं लड़ेगी. चिराग जदयू के खिलाफ उम्मीदवार देंगे. 143 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और फिर उनके विधायक भाजपा की सरकार बनाने में मदद करेंगे. पिछले कुछ दिनों की एनडीए की कहानी का निचोड़ यही है. पर क्या यह सच में निचोड़ है या फिर यह सिर्फ सामने फ्लैश होती हेडलाइंस हैं. अंदरखाने की कहानी कुछ और है.

माना जा रहा है कि भाजपा और मोदी 2013 को भूले नहीं हैं जब नीतीश ने उनकी उम्मीदवारी पर सवाल खड़े कर दिए थे उसके बाद 2015 में बिहार में भाजपा का विजयरथ भी रोक दिया था. चुनाव आज इस मोड़ पर आ चुका है और सियासी गणित में एनडीए का सिर्फ और सिर्फ एक पार्टनर है जो फंसा हुआ बेबस दिखता है. और वह है जदयू. भाजपा ने इतना तगड़ा घेरा कस लिया है कि नीतीश फंसे छटपटा रहे हैं. कैसे कसा भाजपा ने यह घेरा इसे समझते हैं.

भाजपा और जदयू बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ऐसा तय माना जा रहा है. दोनों 119-119 सीटों पर लड़ेंगे और पांच सीटों पर माझी की पार्टी हम लड़ेगी. लोजपा भाजपा का साथ देगी. यानी लोजपा का पांच फीसदी दुसाध वोट बैंक भाजपा को मिलेगा, जदयू को नहीं. एक भावनात्मक चिठ्ठी लिखकर चिराग ने अपने मतदाताओं से यही अपील भी की है कि नीतीश को वोट देने का मतलब वोट खराब करना है. तो नीतीश को कम से कम दर्जन भर सीटों पर दुसाध वोटों का नुकसान होगा.

एनडीए के एक और साझेदार हैं जीतन राम मांझी. उन्होंने चिराग पासवान की तरह संकल्प नहीं लिया है. वे भाजपा के नेताओं के साथ भी रैलियां करेंगे, वोट भी मांगेगे. यानी निषादों के वोट के लिए अपील भाजपा और जदयू दोनों के लिए एक जैसी होगी. भाजपा ने अपने लिए अतिपिछड़ों और महादलितों दोनों के वोटों का इंतजाम कर लिया है लेकिन नीतीश के पास दुसाध वोट के लिए अपील नहीं होगी.

अब भाजपा ने अपना घेरा और कसा है और गेम को आगे बढ़ा रही है. महागठबंधन से एक नेता सन ऑफ मल्लाह यानी मुकेश सहनी अलग हुए हैं. मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी या वीआईपी को मल्लाहों का पूरा समर्थन प्राप्त है. उत्तर बिहार में मल्लाहों की तादात अच्छी खासी है और दो दर्जन सीटों पर बेशक वे अगर अकेले जीत नहीं सकते तो भी जीत-हार के बीच का अंतर पाटने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. खबर है कि भाजपा ने सहनी को दिल्ली बुलाया है और उन्हें अपने कोटे में सीटें देकर लड़ाएगी. भाजपा दस से बारह सीटें तक छोड़ने को तैयार है अगर बदले में उसे मल्लाहों का वोट प्राप्त होता है. भाजपा सहनी को वे सीटें दे सकती है जिस पर वह कमजोर है और सहनी के पास भी अब कोई विकल्प नहीं बचा है. वे पप्पू यादव या ऐसे ही किसी खेमे में जाकर चुनाव लड़कर शायद ही खाता खोल पाएं. भाजपा के साथ से उनका खाता तो खुल ही सकता है.         

भाजपा ने इस तरह अपने हिस्से में एक और दल को कर लिया है. यानी दुसाधों के साथ-साथ मल्लाहों के वोट का भी इंतजाम हो गया है. और मल्लाह अगर कुछ सीटें जीतते हैं तो वे भाजपा के भरोसेमंद रहेंगे. यानी भाजपा की पूरी कोशिश है कि वह कम से कम 75 से 80 सीटें अपने लिए सुनिश्चित करे. उसके आगे का खेल वह अन्य जगहों से विधायकों का इंतजाम करके कर सकती है. चूंकि केंद्र में भी भाजपा है इसलिए उसके पास अन्य दलों के विधायकों को अपने पाले में लाने के बहुत से तरीके मौजूद हैं. सीबीआइ, ईडी और आईटी के इस्तेमाल के साथ ही वह केंद्र में सत्ता में भागीदारी का लालच देकर भी लुभा सकती है. निर्दल विधायकों को मिला लेना और कम सीटें जीतने वाले दलों में तोड़-फोड़ करना बहुत मुश्किल नहीं होगा.     

यानी नीतीश के लिए आगे रास्ता उतना आसान नहीं होने वाला और यह बेचैनी जदयू में दिखने भी लगी है. भाजपा और जदयू को एक साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपने उम्मीदवारों की घोषणा करनी थी लेकिन जदयू ने औपचारिक घोषणा से पहले ही कई प्रत्याशियों को टिकट थमा दिया. अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि जदयू कितनी सीटें लेकर आती है. बिहार में चुनावी ऊंट चुनाव के बाद भी किसी करवट बैठ सकता है.

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