भाजपा के नए सारथी- जगत प्रकाश नड्डा

नड्डा ने संगठन के कौशल का हमेशा परिचय दिया है लेकिन उनके लिए चुनौतियों का अंबार है क्योंकि वह अध्यक्ष के रूप एक नई लकीर खींचने वाले ‘चाणक्य’ के बाद पार्टी की कमान संभाल रहे हैं.

जगत प्रकाश नड्डा जो छह महीने तक भारतीय जनता पार्टी के खिलाड़ी और फिर कार्यकारी कप्तान थे, 20 जनवरी 2020 को आखिरकार उन्हें पार्टी की कमान दे दी गई. स्वभाव से मृदुभाषी नए भाजपा अध्यक्ष के लिए कहा जाता है कि सबको साथ लेकर चलने वाले हैं, नफ़ासत पसंद करते हैं और तसल्ली से काम करते हैं. न ड्डा के वर्तमान की चुनौतियों पर बात करने से पहले उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत पर भी थोड़ी चर्चा कर लेते हैं. 

जेपी नड्डा का परिवार मूलरूप से तो हिमाचल प्रदेश का है मगर उनका जन्म 2 दिसंबर, 1960 को पटना में हुआ था. शुरुआती पढ़ाई पटना के सेंट ज़ेवियर्स स्कूल, पटना कॉलेज में हुई. उनके पिता नारायण लाल नड्डा पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और फिर वाइस चांसलर रहे हैं. 1975-77 में पटना इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन का गढ़ था क्योंकि जयप्रकाश नारायण वहां रहते थे. जेपी से प्रभावित जगत प्रकाश नड्डा ने छात्र राजनीति में कदम रखा और एबीवीपी से जुड़ गए. 1977 में उसके सेक्रटरी चुन लिए गए जहां उनके पिता वीसी रहे हैं.

एबीवीपी शिमला की हिमाचल यूनिवर्सिटी में अपने पैर जमाने की कोशिशें कर रही थी पर कामयाबी नहीं हो पा रही थी. पार्टी ने नड्डा को पटना से शिमला भेजा. नड्डा अंग्रेज़ी में मास्टर डिग्री के लिए हिमाचल यूनिवर्सिटी आ गए. नड्डा की मेहनत का ही कमाल था कि कैंपस में पहली बार एबीवीपी की सीट से वह अध्यक्ष चुने गए.

उनके कौशल से प्रभावित होकर एबीवीपी ने 1986 में उन्हें दिल्ली में लगाया. नड्डा एबीवीपी की दिल्ली यूनिट के नेशनल सेक्रेटरी और ऑर्गेनाइज़िंग सेक्रेटरी बनाए गए. बाद में उन्हें बीजेपी के यूथ विंग भारतीय जनता युवा मोर्चा में भेजा गया. आगे चलकर 1991 में वह यूथ विंग के अध्यक्ष भी बने. इसी दौरान बीजेवाईएम ने कई राज्यों में अपनी पैठ बनाई. नड्डा तब मात्र 31 साल के थे.

पार्टी ने 1993 के विधानसभा चुनाव में उन्हें दोबारा हिमाचल प्रदेश भेजा. हालांकि भाजपा 1993 में सरकार तो नहीं बना पाई लेकिन नड्डा अपनी सीट जीत गए और कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए विपक्ष के नेता भी बनाए गए. 1998 में हिमाचल में फिर से चुनाव आए. भाजपा ने नरेंद्र मोदी वहां के प्रभारी के रूप में जीतने की बागडोर सौंपी. पार्टी स्पष्ट बहुमत तो नहीं हासिल कर सकी लेकिन पूर्व टेलीकॉम मंत्री सुख राम की पार्टी की मदद से सरकार बना ली. नड्डा राज्य सरकार में स्वास्थ्य मंत्री और संसदीय मामलों के मंत्री बने. लेकिन वह 2003 का विधानसभा चुनाव हार गए पर 2007 में फिर से जीत गए. भाजपा ने सरकार बनाई और नड्डा पर्यावरण और विज्ञान एवं तकनीक मंत्री बनाए गए. हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह धूमल नड्डा को पसंद नहीं करते थे. हिमाचल में गुटबाजी बढ़ रही थी. नड्डा ने धूमल पर आरोप लगाए कि वह उनके निर्वाचन क्षेत्र के विकास कार्यों में अडंगे लगा रहे हैं. 

इसी बीच 2010 में भाजपा की कमान नितिन गडकरी के हाथ में आ गई. वह संगठन के एक कुशल नेता नड्डा का कौशल इस तरह की गुटबाजी में बर्बाद नहीं होने देना चाहते थे. सो उन्होंने नड्डा को महासचिव बनाया. नड्डा ने हिमाचल कैबिनेट छोड़ा और दिल्ली आ गए.

2017 में हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव हो रहे थे. नड्डा को एक बार फिर लगा कि उन्हें हिमाचल के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाएगा लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने प्रेम कुमार धूमल का नाम मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए आगे कर दिया. बीजेपी में सुगबुगाहट शुरू हो गई. किस्मत का खेल देखिए. पार्टी तो जीत गई पर धूमल हार गए. नड्डा की उम्मीदें फिर से जाग गईं. वह दिल्ली में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके सीएम बनने की जुगत में लग गए लेकिन शाह ने उनके लिए अलग भूमिका सोच रखी थी. जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया गया और नड्डा फिर मायूस रह गए.

इस तरह नड्डा ने एबीवीपी कार्यकर्ता से लेकर, छात्रसंघ अध्यक्ष, राज्य में विधायक और मंत्री, राष्ट्रीय महासचिव से लेकर कार्यकारी अध्यक्ष तक, नड्डा ने भाजपा की कमान पूरी तरह अपने हाथ में लेने से पहले अपनी पूरी भूमिका निभाई है, हर भूमिका में खुद को साबित किया है.

नड्डा के राजनीतिक जीवन के अगले तीन साल सबसे कठिन गुज़रने वाले हैं. कारण, वह पार्टी संगठन में अमित शाह की जगह ले रहे हैं. अमित शाह जिन्होंने बूथ प्रभारी से शुरुआत की थी उनकी अगुवाई में पार्टी ने आज तक की सबसे बड़ी जीत हासिल की है. शाह की मेहनत और राजनीतिक कौशल के कारण उन्हें चाणक्य कहा जाता है. शाह ने पार्टी अध्यक्ष की एक बहुत लंबी लकीर खींच दी है. जिसमें जीत के लिए जुनून और एडी चोटी का जोर लगाकर हारती बुई बाजी को भी अंतिम समय तक इस प्रकार खेलने की संस्कृति पैदा की है कि कार्यकर्ता को यही लगता है कि ‘चाणक्य’ किसी भी समय बाजी उलट सकते हैं. शाह और नड्डा की कार्यशैली में अंतर है और यही उनकी परेशानी बन सकती है.

नए कप्तान नड्डा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के क़रीबी हैं. पर मोदी हों या शाह, दोनों काम और परिणाम को संबंधों से ज्यादा तरजीह देते हैं. 2019 में मोदी जीते तो जेपी नड्डा मंत्री नहीं बने. हालांकि वह मायूस थे क्योंकि जो उत्तर प्रदेश सपा-बसपा गठजोड़ के बाद हाथ से जाता दिखता था वहां के प्रभारी के रूप में नड्डा ने उस जमीन को सरकने न दिया. भाजपा ने 62 सीटें जीतीं. लेकिन नड्डा को ईनाम मिला. कुछ समय बाद ही उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया.

नड्डा को नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि उनकी वैचारिक निष्ठा और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता पर किसी को कोई शक नहीं है. उनके पास कोई भी व्यक्ति किसी भी काम के लिए जाए, नड्डा की बातचीत से पूरा संतुष्ट होकर लौटता है. यह दीगर बात है कि वह काम कभी नहीं होता. नेता और कार्यकर्ता दोनों का ऐसा ही अनुभव रहता है. नड्डा सवालों को टालने में दक्ष हैं. जानकारी सब होती है पर बताते कुछ नहीं. पत्रकारों से अच्छी दोस्ती हो जाती है पर पार्टी की जानकारी देने में अमित शाह की ही तरह मितव्ययी हैं.

नड्डा के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड तीन राज्यों में चुनावों में गई है. इसमें से दो राज्य उसके हाथ से निकल गए जबकि हरियाणा में बहुत मुश्किल से सरकार बनी है. यह अमित शाह के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के प्रिय नारे को धक्का है. पूर्ण अध्यक्ष के रूप में नड्डा के सामने दिल्ली विधानसभा चुनाव हैं. दिल्ली में भाजपा दो दशक से सरकार बनाने की आस लगाए बैठी है. पिछले चुनाव में तो उसकी ऐसी दुर्दशा हुई थी जिसे भाजपा बुरा सपना समझकर भूला देना चाहेगी. नई नवेली आम आदमी पार्टी ने प्रदेश के 70 में से 67 सीटें जीत लीं थीं और चाणक्य की अगुवाई वाली भाजपा जो केंद्र में सत्तारूढ़ थी पर दिल्ली में मात्र तीन सीटें जीती.

नड्डा चुपचाप और पब्लिसिटी से दूर रहते हुए अपना काम करते रहते हैं. बीजेपी में उन्हें बड़ा रणनीतिकार माना जाता है. नड्डा ने कार्यकारी अध्यक्ष चुने जाने के बाद मीडिया से बातचीत में कहा था, “मैंने अपने करियर में किसी पोस्ट के लिए हाथ-पैर नहीं मारे. जो भी काम मेरे वरिष्ठ नेताओं ने मुझे दिया, मैंने पूरी लगन के साथ किया. मैं अपने प्रचार में भी विश्वास नहीं करता.”

नड्डा के करीबियों की राय है कि वह मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी परेशान नहीं होते. अपने काम को पूरा करते हैं और डेडलाइन से पहले काम करने के लिए जाने जाते हैं. उनका व्यक्तित्व भी काफ़ी आकर्षक है और उनका भाषण भी. नड्डा के संगठनात्मक कौशल से विपक्ष को चिंतित होना चाहिए. ख़ासकर पश्चिम बंगाल और केरल में. कश्मीर पर उनकी समझ भी उनकी रणनीति में मदद करेगी. राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि जेपी नड्डा को अध्यक्ष बनाने की तैयारी या फ़ैसला तो काफ़ी पहले कर लिया गया था, जब भाजपा ने राम लाल की जगह कर्नाटक के बीएल संतोष को राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) बनाया गया. संतोष, नड्डा के बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाले हैं. हार्ड टास्क मास्टर. नतीजे में कोई मुरव्वत नहीं करते. सख्ती उनकी रणनीति नहीं, स्वभाव का अंग है. नड्डा और संतोष की जोड़ी, एक दूसरे की पूरक है. जहां जेपी नड्डा के मृदु स्वभाव से काम नहीं चलेगा, वहां उंगली टेढ़ी करने के लिए बीएल संतोष हैं. अब संगठन का नीचे का काम वही देखेंगे. बीएल संतोष पर मोदी-शाह का नहीं संघ का भी वरदहस्त है. इसलिए भाजपा में एक नये दौर का आग़ाज़ होने वाला है. विरोधियों के मुताबिक़ भाजपा दो लोगों की पार्टी है. उसे सच मान लें तो अब भाजपा चार लोगों की पार्टी होने जा रही है. यह पार्टी के विरोधियों का लिए अच्छी ख़बर नहीं है.

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