बिहार चुनावः एनडीए की नूराकुश्ती बताती है कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है

बात 15 साल पुरानी है. राम विलास पासवान, मनमोहन सिंह की कैबिनेट में मंत्री थे और फरवरी 2005 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. एक तरफ सत्ताधारी लालू की राजद कुछ छोटे दलों के गठबंधन में चुनाव लड़ रही थी तो दूसरी तरफ पासवान की लोजपा और कांग्रेस भी मिलकर चुनाव में उतरे थे. इन दोनों को टक्कर देने के लिए आज के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के बीच गठबंधन हुआ था.

वैसे लालू की पार्टी भी केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार में शामिल थी. मतलब केंद्र में साथ-साथ थे लेकिन बिहार में आमने-सामने का मुकाबला था. त्रिशंकु विधानसभा बनी. सत्ता की चाबी पासवान के हाथ थी और लालू को सत्ता से बेदखल करने के लिए नीतीश पासवान के पास मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव लेकर गए पर पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री वाला अपना राग अलापा. वे अड़े रहे कि जो भी दल किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएगा, वह उसका साथ देंगे. बात बनी नहीं. कोई भी दल या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था और राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग करके राष्ट्रपति शासन की सिपारिश कर दी.

छह महीने बाद नवंबर 2005 में फिर से चुनाव हुए. इस बार लालू और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और पासवान की पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर लड़ी. यूपीए और एनडीए दोनों के खिलाफ लड़ रही लोजपा को 14 प्रतिशत वोटों के साथ 10 सीटें मिलीं. इस बार सत्ता की चाबी तो उसके हाथ नहीं थी लेकिन उसने लालू के मुसलमान वोट बैंक में ऐसी सेंधमारी की कि नीतीश के नेतृत्व वाले एनडीए को 243 सदस्यीय विधानसभा में 143 सीटें मिल गईं. पासवान यूपीए में थे लेकिन यूपीए के खिलाफ चुनाव लड़े और बिहार में लालू का बेड़ा गर्क कर दिया.

15 साल बाद लोजपा की कमान उनके बेटे चिराग के हाथ में है. हालात कमोबेश वैसे ही देख रहे हैं. पासवान केंद्र में एनडीए में मंत्री हैं लेकिन चिराग बिहार में एनडीए के मुख्यमंत्री के खिलाफ लगातार हमलावर हैं. कभी वे नीतीश को पत्र लिखकर घेरते हैं तो कभी ट्वीट करके. वे नीतीश से इस कदर खफा हैं कि महीने भर पहले उन्होंने लोजपा के मुंगेर जिलाध्यक्ष राघवेंद्र भारती को उनके पद से सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि भारती ने कहा था कि एनडीए अक्षुण्ण है.

07 अगस्त 2020 को लोजपा की संसदीय बोर्ड की बैठक में सदस्यों ने कहा कि कोविड-19 के बाद हुए लॉकडाउन में प्रवासियों की मदद में आनाकानी और बाढ़ राहत में असफलता के कारण  नीतीश की छवि पर नकारात्मक असर हुआ है. इसलिए नीतीश की अगुआई में बिहार का चुनाव लड़ना ठीक संदेश नहीं देगा. बैठक के बाद पार्टी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष राजू तिवारी ने एक बयान जारी किया कि बिहार की 143 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय करके जल्द ही केन्द्रीय कमेटी को सौंप दिया जाएगा जिस पर आगे फैसले लेने का अधिकार चिराग पासवान को होगा. यानी चिराग अब तय करेंगे कि क्या वह भी अपने पिता की तरह 15 साल पुराना इतिहास दोहराएंगे.

अगर ऐसा होता है तो लोजपा एनडीए में तो बनी रहेगी, भाजपा के साथ बनी रहेगी लेकिन जदयू के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारेगी. एलजेपी और जदयू दोनों के नेता इस आग में लगातार घी डाल रहे हैं. जदयू नेता बार-बार कहते हैं कि उनका गठबंधन भाजपा के साथ है, लोजपा कौन है हम नहीं जानते. लोजपा भी कुछ ऐसा ही कहती है.

अब बात बयानबाजी से आगे निकल गई है. नीतीश पूर्व मुख्यमंत्री और दलित नेता जीतन राम मांझी को लालू खेमे से खींच लाए. इसके बाद लोजपा ज्यादा आक्रामक हो गई है क्योंकि एनडीएम खेमे में वह दलित वोटों का एक और हिस्सेदार स्वीकारने में सहज नहीं है. नीतीश की ओर से मांझी ने चिराग और लोजपा पर हमले की कमान संभाली है. मांझी ने कहा है कि उनकी पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) लोजपा के खिलाफ सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारेगी.

अब चिराग को फैसला लेना है. उन्होंने भी पिता की तरह दूसरे विकल्प तलाशे हैं तो दूसरे दलों ने उनपर भी डोरे डाले हैं. चिराग पप्पू यादव से मुलाकात कर चुके हैं और कई छोटे दलों के साथ संपर्क करके तीसरे मोर्चे की संभावना तलाश रहे हैं.

कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्तिसिंह गोहिल खुलकर उन्हें अपने खेमे में आने का निमंत्रण दे चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से इंकार करने और केंद्र सरकार के इस पर मौन के बाद दलित राजनीति करने वाली लोजपा के सामने गोहिल ने पासा फेंका था. उन्होंने कहा था कि अगर लोजपा  महागठबंधन में शामिल होना चाहे तो कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ इस पर विचार करेगी. 

15 साल में बहुत कुछ बदल चुका है. देखना होगा चिराग अपने पिता की तरह ही कैलुकेशन और मिसकैलुकेशन में उलझकर रह जाते हैं या फिर दबाव बनाने की उनकी रणनीति कारगर होती है और वह अपने लिए कुछ अतिरिक्त सीटें झटकने में कामयाब हो जाते हैं.

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