कार बाजार का हाहाकार, कितना असली कितना नकली…

भारत में कार बाजार के धड़ाम हो जाने की जो खबरें हैं क्या वह सही है या फिर एक ऐसा अर्धसत्य है जिसका इस्तेमाल कंपनियों अपनी सुविधा से कर रही हैं.

टेलीविजन पर चर्चा है, अखबारों में खबर है, सोशल मीडिया पर तूफान मचा है- ऑटोमोबाइल सेक्टर में भारी मंदी आ गई है. गाड़ियां बिक नहीं रहीं, शो रूम बंद हो रहे हैं. ऑटोमोबाइल के आश्रित उद्योग जैसे नट-बोल्ट, वॉशर गियर, फिल्टर, सीट और सीटकवर आदि कारों के बहुत से पार्ट्स बनाने वाले उद्योगों में से रोज छंटनी हो रही है. झारखंड जहां लोहा उद्योग बहुत समृद्ध है और आश्रित उद्योगों की सबसे ज्यादा इकाइयां हैं, वहां से खबरें आने लगीं कि लेबर चौक पर मजदूरों की तादात बढ़ रही है. ज्यादातर वे लोग हैं जिनकी अभी-अभी नौकरी गई है. ये सारी बातें आए दिन सुनने को मिल रही हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ऑटोमोबाइल सेक्टर में मंदी है, लेकिन यह कथन अपने साथ दो और सवाल लेकर आता है. पहला सवाल तो क्या ऐसा सिर्फ भारत के ऑटोमोबाइल सेक्टर में दिख रहा है? और दूसरा कहीं कार उद्योग ने खुद ही तो यह संकट अपने लिए नहीं खड़ा किया? मंदी का माहौल बनाकर कहीं सरकार को दबाव में लाकर कुछ ज्यादा रियायतों पर तो नजर नहीं गड़ाई गई है? न्यूजऑर्ब360 में हम भारत में चर्चा का हॉट टॉपिक बने इसी पहलू का मंथन करेंगे.

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कुछ आंकड़ों के साथ शुरुआत करते हैं जो अखबारों में सुर्खियां बन रहे हैं. मारुति सुजुकी की घरेलू बिक्री 17.2 प्रतिशत गिरी. टाटा मोटर्स की पैसेंजर कारों की बिक्री 27 प्रतिशत गिरी. ह्यूंदै मोटर इंडिया की बिक्री में 3.2 प्रतिशत की गिरावट आई. टोयोटा की बिक्री 19 प्रतिशत गिरी. महिंद्रा एंड महिंद्रा की बिक्री में 9 प्रतिशत की कमी आई. ये सारी लाइन्स अलग-अलग समय पर अखबारों की हेडलाइंस की हैं. इन्हें देखकर तो वाकई चिंता होने लगती है कि कहीं भारत का ऑटोमोबाइल सेक्टर जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रेलवे का बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देता है, कहीं उसका बोरिया बिस्तर तो नहीं बंध जाएगा. और अगर ऐसा होता है तो वाकई बहुत संकट की स्थिति आ जाएगी.

इसी बीच भारत के अखबारों, टीवी सोशल मीडिया हर जगह किया मोटर्स की चमचमाती गाड़ियों की तस्वीरें तैरने लगीं. दक्षिण कोरियाई कार कंपनी किया मोटर्स ने 22 अगस्त 2019 को भारत में अपने लॉन्चिंग की घोषणा की और लॉन्चिंग के दिन ही कंपनी के एसयूवी किया सोल्टोस की रिकॉर्ड 35,000 बुकिंग हुई. कंपनी के शोरूम में मारी-मारी मची थी उस गाड़ी के बुकिंग की जिसकी कीमत 11-17 लाख रुपए के बीच है. कंपनी को बुकिंग रोकनी पड़ी. उसी तरह अगर आप ब्रिटिश कंपनी मॉरिस गैरेजेज (MG) की एसयूवी एमजी हेक्टर जिसकी कीमत 12.5- 17.5 लाख है खरीदना चाहेंगे तो आपको सात महीने इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि कंपनी के पास इतनी एडवांस बुकिंग हो चुकी है कि सात महीने बाद ही वह आपको कार दे पाएगी. वहीं हुंडई वेन्यु जिसकी कीमत 8 से 12 लाख रुपए के बीच है उसका वेटिंग पीरियड दो महीने का है. यानी आपको यदि यह कार चाहिए तो आज बुक कराइए और दो महीने इंतजार कीजिए. आठ लाख से 18 लाख की गाड़ियां खरीदने के लिए खरीदार पैसे लिए खड़े हैं लेकिन कंपनियां कारें दे नहीं पा रहीं और भारत का कार बाजार मृतप्राय पड़ा है, हाहाकार मचा हुआ है. दोनों बातें कुछ अटपटी नहीं लगतीं?

बेशक ऊपर जो दो बातें बताई गईं वह भारतीय कार बाजार का कड़वा सच है लेकिन साथ में सच यह भी है कि भारतीय कार बाजार में मुश्किलें भी चल रही हैं. घरेलू मांग में कमी आने की वजह से वाहनों की बिक्री 19 साल के न्यूनतम स्तर पर है. पिछले साल के मुकाबले मई, 2019 में कारों की बिक्री में 26 फीसदी कमी आई. 2017-18 में चार पहिया वाली गाडियों की बिक्री 14 फीसदी के दर से बढ़ रही थी लेकिन फिलहाल यह 5 फीसदी पर है. वहीं दोपहिया में यह गिरावट 15 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत हो गई है. कार कंपनियों ने अपना उत्पादन धीमा किया है तो जाहिर कल-पुर्जे बनाने वाली कंपनियों का ऑर्डर घटा है और वहां छंटनी हुई है.

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अब पहले सवाल पर आते हैं कि क्या यह यह स्थिति सिर्फ भारत में है?
दुनिया में कार उत्पादन के सबसे बड़े गढ़ जर्मनी की एक संस्था है सेंटर फॉर ऑटोमोटिव रिसर्च जिसे शॉर्ट में कार भी कहा जाता है, दुनियाभर में ऑटोमोबाइल सेक्टर पर नजर रखती है और विश्वसनीय आंकड़े प्रदर्शित करती है. कार की रिपोर्ट कहती है कि 2008 के वित्तीय संकट के साथ ही दुनियाभर में कारों की बिक्री में गिरावट आनी शुरू हो गई थी जो लगातार जारी है. कंपनी ने कहा कि लोग पहले के मुकाबले कार का ज्यादा समय तक इस्तेमाल करने लगे हैं. कहने का मतलब कि अगर एक व्यक्ति हर तीन साल में अपनी कार बदल देता था तो अब वह पांच साल तक वही कार चलाने लगा है. रिपोर्ट कहती है कि 2019 में दुनियाभर में नई कारों की खरीद में कुल गिरावट 40 लाख की रही. यानी अकेले भारत ही नहीं है जहां कारों की बिक्री घटी है.

रिपोर्ट में अमेरिकी प्रतिबंधों, चीन में कारों के इस्तेमाल में कमी, कार्बन-डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन से जुड़े नियमों में सख्ती और सार्वजनिक परिवहन के उन्नत होने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक कारों के लिए लोगों के इंतजार को इसका कारण माना है. जाहिर है भारत में भी यह सब फैक्टर लागू हो रहे हैं.

अब आते हैं दूसरे सवाल पर कि क्या भारत की कार कंपनियों का कोई दोष नहीं है इस मंदी को बढ़ाने में? भारत के ऑटोमोबाइल सेक्टर में जो मंदी आई है उसकी 3 प्रमुख वजहें बाजार के विशेषज्ञ मानते हैं.

पहली वजह है कंपनियों द्वारा छोटी कारों को लेकर कोई भी नया प्रयोग न करना. भारत में हमेशा से छोटी कारें लोकप्रिय रही हैं. लेकिन कार कंपनियों ने छोटी कारों के खरीदारों के साथ ‘ सब चलता है ’ वाला ढर्रा अपना लिया है. गाड़ियों में वही पुराने घिसे-पिटे फीचर्स रहते हैं हेडलाइट और बंपर में जरा सी हेर-फेर, लेग स्पेस में एक या दो ईंच और डिकी स्पेस में मामूली सी कांट-छांट करके नया मॉडल लॉन्च कर दिया. इससे ज्यादा वे छोटे कार सेगमेंट में कुछ करने को तैयार नहीं. लोगों को भी लगता है आखिर इसमें नया क्या है? जब नया कुछ है नहीं तो पुराना क्या बुरा है. इसलिए सेकेंड हैंड गाड़ियों की बिक्री बढ़ रही है और नई छोटी कारों की गिर रही है. लोगों को नयापन चाहिए. और नएपन के साथ जो भी मार्केट में उतरता है उसे ग्राहक हाथों-हाथ लेते हैं. किया सेल्टो और एमजी हेक्टर इसके जीते-जागते सबूत हैं.

दूसरा कारण है सरकार की ओर से बीएस-6 इंजन पर जोर देना. सरकार ने प्रदूषण की बढ़ती समस्या को देखते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर जोर दिया है. इसलिए कार कंपनियों को कहा जा चुका है कि अगले साल से सिर्फ बीएस-6 इंजन वाली गाड़ियां ही बिकेंगी. जब बिकनी ही बंद हो जाएंगी बीएस- बने क्यों. इसलिए कार कंपनियां पहले पुराना स्टॉक खपा लेना चाहती हैं उसके बाद नया स्टॉक तैयार होगा. बीएस 4 से बीएस 6 में शिफ्ट होने में कंपनियों को समय और निवेश दोनों चाहिए. इसलिए वे थोड़ा सरकार पर दबाव बनाने के लिए भी छंटनी कर रही हैं ताकि सरकार जीएसटी की दरों को कम करे और लगता है कि इसमें वे सफल भी रही हैं. वहीं जनता ये सोच रही है कि जब अगले साल से बीएस-6 इंजन वाली गाड़ियां आ ही रही हैं, तो क्यों ना कुछ महीने इंतजार कर लिया जाए और बीएस-6 ही लिया जाए. क्या पता आगे चलकर बीएस-4 पर सरकार पूरा प्रतिबंध ही लगा दे. खरीदार रिस्क लेना नहीं चाहते इसलिए भी मांग में कमी है लेकिन ऐसा नहीं है कि वह खरीदना नहीं चाहते. यानी घरेलू मांग में यह गिरावट एक सीजन भर की है.

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बीएस-4 को लेकर जो नए मानक तय हुए हैं उनकी वजह से तकनीकी बदलाव करने होंगे. इससे डीजल कारों की कीमतों में बढ़ोतरी होगी. लागत 2.5 लाख तक बढ़ सकती है और बड़ा अंतर तकरीबन 50 फीसदी तक का छोटी कारों में दिखेगा. अभी कुल कारों की बिक्री में डीजल कारों की हिस्सेदारी 40 फीसदी है. इसके घटकर 28 फीसदी पर आने का अनुमान है. हालांकि, डीजल कारों की बिक्री में 2012-13 से लगातार कमी आ रही है. उस वक्त डीजल कारों की हिस्सेदारी कुल बिक्री में 60 फीसदी थी. इसका एक मुख्य कारण डीजल और पेट्रोल के दामों का घटता फासला भी है. 2012-13 में जहां प्रति लीटर यह अंतर 40 रुपये का था, वहीं 2017 में यह 17 रुपये का रह गया. फिर भी एक दिलचस्प बात यह है उत्पादन लागत बढ़ने के बावजूद देश की आठ बड़ी कार कंपनियों के कुल मुनाफे में सिर्फ एक फीसदी की कमी आई है और वित्त वर्ष 2018 में इनका मुनाफा 34 फीसदी रहा. 34 फीसदी का मुनाफा कम नहीं होता लेकिन कंपनियों को 42 फीसदी तक की आदत पड़ चुकी है और वे अपनी कमाई में कमी को राजी नहीं हैं. साफ है कि कंपनियां घाटे में नहीं हैं बस उनका मुनाफा उनके लालच को सूट नहीं कर रहा. इसके अलावा एक और गंभीर मुद्दा सेफ्टी फीचर्स से जुड़ा भी है. भारत की अधिकांश छोटी कारें सेफ्टी फीचर्स के मानदंड़ों पर फिसड्डी निकलीं. इसलिए विदेशों में उनकी मांग घट रही है. कुछ देशों से तो उन्हें अपनी गाड़ियां वापस मंगानी पड़ रही हैं. वैसे भी, मोदी सरकार के सख्त फैसलों के बारे में हर कोई जानता है. डर ये है कि कहीं अचानक पुराने इंजन वाली गाड़ियों को लेकर कोई सख्त नियम आ गया तो क्या होगा.

तीसरा कारण है इलेक्ट्रिक कारों का इंतजार. वित्त मंत्री ने इस बजट में इलेक्ट्रिक कारों का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए बहुत सी रियायतों की घोषणा की जिसमें कारों पर सब्सिडी से लेकर, जीएसटी में कमी और पार्किंग शुल्क तक में माफी जैसे प्रलोभन दिए गए हैं. अब इतने सारे फायदे दिखते हों तो ग्राहक क्यों न तोल-मोल करे. कार के खरीदार अभी इलेक्ट्रिक कारों और दूसरी कारों के बीच एक अध्ययन कर रहे हैं. वे तय नहीं कर पा रहे कि किस ओर जाएं इसलिए उन्होंने खरीदारी के निर्णय को कुछ समय के लिए होल्ड पर रखा है. इसका मतलब यह नहीं कि वे खरीदारी नहीं करेंगे, बस कुछ समय रूके हुए हैं. ऐसे में कंपनियां अपने शोरूम बंद करने की खबरें फैलाकर अपना गुडविल खराब कर रही हैं. शेयर मार्केट पर भी उसका असर दिखा है.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जो परेशानी भारत के बाजार में चल रही है वह एकतरफा नहीं है. दुनियाभर में जो हो रहा है उसका असर भारत के कार बाजार पर है. नीतियों में बदलाव का भी असर है साथ ही कुछ हद तक ऑटोमोबाइल कंपनियों का लालच भी जिम्मेदार है. कंपनियों को लग रहा है कि सरकार दबाव में है और उसकी बांह मरोड़कर जितना फायदा निकलवाया जा सके निकाल लेना चाहिए. वित्त मंत्री ने मुंह फुलाए बैठी कार कंपनियों के कर्ता-धर्ताओं को चाय पर बुलाया और चर्चा भी की. हो सकता है कि खबरों का रूख दशहरे से बदल जाए. ‘फलां कार की एक दिन में इतनी बिक्री’, ‘फलां कंपनी ला रही है फलां मॉडल’, ‘फलां कंपनी के फलां मॉडल की चाहिए कार तो करना पड़ेगा इतना लंबा इंतजार’, टाइप की सुर्खियां दिखने लगें. सब अपने-अपने हिस्से का गेम खेल रहे हैं, अपने-अपने पसंदीदा ट्रैक पर फर्राटा दौड़ रहे हैं- क्या कंपनियां, क्या ग्राहक, क्या बाजार.

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