चेहरे ने न जाने क्या-क्या लूटा

नए दौर की भारत की राजनीति में चुनाव चेहरे, वैसे तो पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अभी एक साल का समय है, लेकिन सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को तख्ते से हटाने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पिछले कई सालों से अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं. पिछले साल लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 41 फीसदी वोटों के साथ बंगाल में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए राज्य की 42 में से 18 संसदीय सीटें जीतकर राजनीतिक पंडितों को भी चौंका दिया था.

लोकसभा चुनावों के परिणाम भाजपा का हौसला बढ़ाने वाले थे लेकिन भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है- चेहरा.

नए दौर की भारत की राजनीति में चुनाव चेहरे और लहर पर जीते जाते हैं. जमीनी स्तर पर संगठन की भूमिका तो द्वितीय स्तर पर शुरू होती है. 2014 और 2019 में मोदी के चेहरे पर भाजपा ने लोकसभा चुनाव जीते.

चेहरे का महत्व समझना हो तो दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसकी शानदान मिसाल हो सकते हैं. बिना मजबूत संगठन के केजरीवाल ने कई चुनाव जीत लिए. उन्होंने ‘भाजपा की ओर से कौन’ का सवाल इतनी बार पूछा कि जनता के सामने उनके अलावा कोई विकल्प ही नहीं दिखा. भाजपा ने पूरे देश की ताकत झोंक दी लेकिन केजरीवाल को हरा नहीं पाई. सवाल, चेहरे का था. बिहार में जदयू इसलिए सहयोगियों से लेकर विपक्षियों तक, सब पर बीस पड़ती है क्योंकि उसके पास नीतीश कुमार जैसा भरोसेमंद चेहरा है.

बंगाल में भी यही प्रश्न ऐसा है जो भाजपा की दिखती रग पर उंगली रख रहा है. ‘ममता के सामने कौन’. यहीं पर भाजपा की सारी चुनावी तैयारियां फीकी पड़ जाती हैं. भाजपा के पास वास्तव में बंगाल में एक भी ऐसा भरोसेमंद चेहरा नहीं है जिसके बूते पर ममता को चुनौती दे सके.

इतने वर्षों में भाजपा ने संगठन बना लिया, एनआरसी और नागरिकता संशोधन अधिनियम की मदद से अपने पक्ष में एक मजबूत आधार भी बना लिया है लेकिन उसे भुनाने के लिए उसके पास चेहरा नहीं है. पार्टी इस बात को समझ रही है कि यह सवाल उसे बहुत परेशान करने वाला है.     

पार्टी ने बहुत टटोला लेकिन उसे कोई ऐसा विश्वसनीय और सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं मिला. हारकर पार्टी ने वह प्रयोग ही आजमाने का फैसला किया है जो उसने पहले हरियाणा और झारखंड में, उसके बाद उत्तर प्रदेश में आजमाया था. पार्टी बिना चेहरे के चुनाव में उतरेगी. विधानसभा चुनाव के लिए किसी को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश नहीं करेगी बल्कि ममता बनर्जी का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास योजनाओं और कार्यों के भरोसे मैदान में उतरेगी. बंगाल में बगैर चेहरे के उतरना बीजेपी की मजबूरी भी है और इसे उसकी रणनीति का हिस्सा भी माना जा रहा है. 

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कोलकाता में कहा कि सत्ता में आने के बाद उनकी पार्टी अपने मुख्यमंत्री का चुनाव करेगी. उन्होंने कहा कि अभी के लिए यह तय किया गया है कि हम किसी को भी अपने मुख्यमंत्री चेहरे के तौर पर पेश नहीं करेंगे. हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव की जंग में उतरेंगे.

विजयवर्गीय कहते हैं कि भाजपा ने 294 सदस्यीय विधानसभा में 220-230 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. हम अपना लक्ष्य हासिल करेंगे, जैसा हमने लोकसभा चुनावों में किया था. मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर किसी को पेश करना कोई मुद्दा नहीं है. 

हालांकि भाजपा ने 2016 का विधानसभा चुनाव भी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर बिना कोई चेहरा सामने रखे ही लड़ा था. भाजपा ने बंगाल के परंपरागत विरोधी दलों माकपा और कांग्रेस को तीसरे और चौथे स्थानों पर पहुंचा दिया है. 

ममता बनर्जी पिछले 10 साल से बंगाल में सीएम हैं और जमीनी व संघर्षशील नेता के तौर पर उनकी पहचान है. ममता खुलकर बंगाली अस्मिता का कार्ड खेल रही हैं. 
 

मेघालय के पूर्व राज्यपाल तथागत रॉय सक्रिय राजनीति में लौट आए हैं. उन्होंने बीजेपी की ओर से पश्चिम बंगाल के सीएम पद की दावेदारी भी पेश की है. इसके अलावा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष भी खुद को सीएम के तौर पर पेश कर रहे हैं तो केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो भी खुद को प्रमुख दावेदार मानकर चल रहे हैं. इनके अलावा टीएमसी से आए मुकुल रॉय भी मुख्यमंत्री पद पर नजर गड़ाए हैं. इन सबके बीच एक और नाम क्रिकेटर सौरव गांगुली का भी चल रहा है.
 

लेकिन भाजपा नेताओं के बीच आपसी मारामारी भी जगजाहिर है. तथागत रॉय और दिलीप घोष के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है. तथागत रॉय पहले पश्चिम बंगाल भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं. मुकुल रॉय की भी न तो दिलीप घोष से पटती है और न ही बाबुल सुप्रियो से.

सवाल यह है कि इस तरह बिखरी भाजपा किस प्रकार ममता बनर्जी का किला भेद पाएगी.

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