चीनी मर्ज का शिकार, भारत का दवा बाजार…

हमारा धुर राष्ट्रवाद बेशक हमें चीनी वस्तुओं का इस्तेमाल बंद कर देने की जरूरत बताता है लेकिन हम चाहकर भी दवा के क्षेत्र में ऐसा नहीं कर सकते. आज के जो हालात हैं उसमें तो बिना चीनी मदद के हमारी छोटी हो या बड़ी किसी भी मर्ज का इलाज ही नहीं हो सकता.

चीनी मर्ज का शिकार, एक आम भारतीय जनमानस जब व्हॉट्सऐप पर यह मैसेज देखता है कि चीन हमारा दुश्मन है. इसलिए हम चीनी उत्पादों का बहिष्कार करके चीन की कमर तोड़ दें. बहिष्कार किन चीजों की करें, उसकी एक लिस्ट भी पकड़ा दी जाती है. इसमें झालर से लेकर दीये तक और खिलौनों से लेकर मोबाइल तक, एक लंबी लिस्ट होती है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि आज के दौर में पैसे की ताकत ही सबसे बड़ी ताकत है. आयात से हमारे देश का पैसा चीन में जाता है और चीन को आर्थिक रूप से मजबूती मिलती है. पर यहां पर एक बात जिसकी हम अनदेखी कर देते हैं या फिर उस व्हॉट्सऐप मैसेज में जानबूझकर इसे नहीं लिखा जाता, कि भारत ऊपर बताई गई चीजों से कई गुना अधिक का आयात दवाइयों का करता है. वे सारी दवाइयां जो डॉक्टर हमें पर्चियों पर लिखकर देते हैं और हम बाजार से खरीदकर खाते हैं. आपको यह जानकर आश्चर्य और दुख भी हो सकता है कि हमारी दवा आयात का दो तिहाई यानी तीन में से दो दवाई या तो सीधे चीन से बनकर आती है या फिर उसका एपीआई चीन से आता है. सरल शब्दों में कहूं तो दवाई में जो असली माल होता है उसे कहते हैं एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडिएंट्स. इसे ही संक्षेप में एपीआई भी कहा जाता है. दरअसल यह एपीआई ही है जो उस बीमारी से लड़ने के लिए दवाई के अवयवों को सक्रिय करता है जिसके लिए वह दवाई ली जाती है. जो बातें ऊपर मैंने कहीं वह बातें संसद में एक सांसद के प्रश्न के उत्तर में मंत्री द्वारा दिए गए जवाब पर आधारित है.

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चीनी मर्ज का शिकार,, गुलबर्गा से बीजेपी सांसद डॉ. उमेश जी. माधव ने लोकसभा में सरकार से एक प्रश्न पूछा कि देश में विभिन्न जरूरी दवाओं के लिए आवश्यक कच्चा माल के लिए भारत की चीन पर कितनी निर्भरता है? सरकार इसके लिए क्या सोच रही है और आगे की क्या तैयारियां हैं. यानी सरकार से इसका कारण और निवारण दोनों पूछा गया था. दवा निर्माण चूंकि रसायन मंत्रालय के तहत आता है इसलिए रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने जवाब दिया.

चीनी मर्ज का शिकार,, उन्होंने स्वीकारा कि दवाओं के मामले में भारत की चीन पर करीब दो तिहाई निर्भरता है. उन्होंने चीन से दवाओं के आयात के जो आंकड़े दिए वे चिंतित करने वाले थे. ‘चिंतित करने वाले’ शब्द का इस्तेमाल मैंने इसलिए किया क्योंकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अपनी रिपोर्ट में दवाओं पर चीन की निर्भरता के संदर्भ में इसी शब्द का इस्तेमाल किया था. जानते हैं कि चीन से दवाओं के आयात के संदर्भ में संसद में पेश किए गए आंकड़े क्या कहते हैं.
2016-17 में देश ने दवाओं का कुल आयात 2738.46 मिलियन डॉलर का किया जिसमें से 66.69 प्रतिशत यानी 1826.34 डॉलर की दवाई सिर्फ चीन से आई. इसी तरह 2017-18 में कुल 2993.25 के दवा आयात में 2055.94 मिलियन डॉलर यानी 68.68 प्रतिशत आयात भी चीन से ही हुआ. जबकि 2018-19 में बारत ने दवाओं का कुल आयात 3560.35 मिलियन डॉलर का किया उसमें भी चीन का हिस्सा दो तिहाई ही रहा. चीन से 67.56 प्रतिशत यानी 2405.42 मिलियन डॉलर का आयात हुआ.

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चीनी मर्ज का शिकार, मंत्री ने यह भी बताया कि डीजीसीआईएस कोलकाता, के आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 के दौरान, देश में आयातित बल्क ड्रग्स में चीन का हिस्सा लगभग 67 प्रतिशत है. पर संसद में भारत कुछ जरूरी दवाओं सहित अन्य सामान्य दवाओं के निर्माण के लिए ड्रग्स/एक्टिव फार्मास्यूटिकल अवयव यानी एपीआई का आयात चीन से सबसे अधिक होता है.

चीनी मर्ज का शिकार,, हमारे देश से इतना ज्यादा पैसा चीन चला जा रहा है और सरकार को कोई खबर ही नहीं? यदि आप ऐसा सोचते हों तो आप गलता हैं. सरकार की जानकारी के बिना कोई आयात-निर्यात नहीं होते और सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में अपने देश में दवाओं के उत्पादन को बढ़ावा देने की दिशा में अच्छे प्रयास भी किए हैं. वे प्रयास कुछ हद तक सफल भी रहे हैं और हम जेनेरिक दवाओं के दुनिया के पांच सबसे बड़े निर्यातकों में भी शामिल हुए हैं. कुछ अफ्रीकी देशों में तो हम जेनेरिक दवाओं के नंबर एक और नंबर दो निर्यातक हैं. पर यह भी सत्य है कि देश में बल्क ड्रग का निर्माण देश की आवश्यकता के अऩुसार शुरू नहीं किया जा सका है. हमारी जरूरत के मुताबित दवाओं का उत्पादन नहीं हो सका है इसलिए सरकार के पास कोई खास विकल्प तब तक मौजूद नहीं है जब तक कि हम आत्मनिर्भर होने की दिशा में कुछ वाकई उत्साहजनक कर पाते हैं. चीन की दवाई क्यों सस्ती है इस पर भी बात करूंगा लेकिन पहले संक्षेप में यह भी समझ लेते हैं कि किन दवाओं के लिए हम चीन पर कितना आश्रित हैं.

वर्तमान में हमारे देश की दवा कंपनियां चीन से एस्परिन से लेकर पैरासिटामॉल तथा एंटीबायोटिक्स एवं शुगर की दवा मैटफॉर्मिन तक का आयात करती है. दरअसल, इन बल्क ड्रग से ही जीवन रक्षक तथा आवश्यक दवाएं बनाई जाती हैं. कुछ साल पहले जब चीन की सरकार ने पर्यावरणीय कारणों से चीन की कई उत्पादन इकाइयों को बंद कर दिया था तब भारत में बल्क ड्रग के दाम आसमान छूने लग गए थे. अगर कुछ प्रमुख दवाओं का नाम लें तो बुखार की दवा पैरासीटामॉल के बल्क ड्रग के दाम में 45 फीसदी, एंटीबायोटिक एजिथ्रोमाइसिन के दाम में 36 फीसदी, सिप्रोफ्लॉक्सेसिन के दाम में 28 फीसदी का इजाफा हुआ था. इसके अलावा भी अल्सर की दवा रैबीप्राजॉल, इशमोप्रजॉल, पैन्टाप्रजॉल, नसों की दवा मिथाइलकोबाल्मिन, उच्च रक्तचाप की दवा लोसारटन, टेल्मीसारटान, हृदयरोग की दवा सिल्डनाफिल, तथा सिफोलोस्पोरिन ग्रुप की दवा सीफेक्सिन, सैफपोडक्सोमिन और सेफ्युरोक्सिन के बल्क ड्रग की कीमत बढ़ गई थी. दवाएं सबकी जरूरत हैं. बहुत सी सरकारें अपने राज्य के अस्पतालों में प्रमुख दवाओं को फ्री बांटती है. यानी सरकार से लेकर आम आदमी सबको बड़ी चपत लग जाती है.

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चीन सरकार की एक छोटी सी हलचल से हमारे देश में दवा की कीमतों पर इतनी मार पड़ी. यदि चीन दवाएं भेजना ही बंद कर दे तो क्या हो? चीन एक ऐसा देश है जो दुनिया के किसी भी स्थापित मूल्यों और नियमों को अपनी सुविधा से जब चाहे धता बता देता है. इसलिए चीन से कब क्या कर सकता है, कहना मुश्किल है. हमारे पास तत्काल के कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है. हमारे देश में दवाओं की कीमतों को तय करने के संबंध में अगर बहुत कठोर न सही तो भी एक स्तर पर मूल्य नियंत्रण लागू है. यानी दवाओं का दाम एक स्तर से ऊपर नहीं रखा जा सकता और एक स्तर से अधिक दाम बढ़ाने के लिए कुछ मंजूरियां लेनी होती है. तो अगर चीन से सप्लाई पूरी तरह बंद हो जाती है तो हमें महंगे विकल्पों की ओर जाना होगा. तब दो ही रास्ते हैं. पहला तो कंपनियां घाटा सहके दवाएं बेचें और दूसरा सरकार कीमतों में भारी वृद्धि की अनुमति दे दे. कहने की जरूरत नहीं कि दोनों विकल्प ही अस्वीकार्य हैं.

अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत चीन के साथ दवाओं के मामले में शुरू से ही इस असंतुलन का शिकार है या यह हाल की समस्या है. आज से 20 साल पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. दवाओं का हमारे देश में भरपूर उत्पादन भी होता था तथा बड़ी मात्रा में विदेशों को निर्यात भी. कुछ दवाओं के लिए तो हम विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए मुख्य आपूर्तिकर्ता थे क्योंकि हमारी दवाएं गुणवत्ता में अच्छी और दाम में सस्ती थीं. लेकिन वैश्वीकरण की जंग में भारत इसमें पिछड़ गया. चीन की दवाइयां इतनी सस्ती पड़ने लगीं कि हमारे उत्पादकों ने धीरे-धीरे करके उत्पादन बंद कर दिया. हम चीन से आयात पर आश्रित होते चले गए. यदि कहा जाए कि चीन ने हमें बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत पंगु बना दिया है, तो कुछ गलत न होगा.

चीनी सरकार ने अपने देश की एपीआई तथा इंडरमीडियेट्स (दवाओं के सहयोगी अवयव) बनाने वाली निजी कंपनियों को भरपूर मदद दिया. उन्हें बैंकों से भी कम ब्याज पर कर्ज दिया गया ताकि वे अपनी क्षमता का विस्तार कर सकें. चीन में उत्पादन का स्तर बढ़ गया. बाजार, इकोनॉमी ऑफ स्केल पर चलता है. यानी ज्यादा उत्पादन हो तो लागत कम होती जाती है. चीन की कंपनियों ने इसी फॉर्मूले को पकड़ा जिसमें वहां की सरकार ने उनका भरपूर साथ दिया. यहां तक की उदारीकरण के तय नियमों को अनदेखी करके भी सरकार की ओर से मदद दी गई. इसके अलावा सरकार ने नियमों को लेकर भी सख्ती बरती. पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि चीन की दवाओं के लिए भारत में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए कुल से दो से पांच माह का समय लगता है लेकिन यदि भारत की किसी दवा को चीन में रजिस्ट्रेशन कराना हो तो उसमें दो से पांच साल तक का समय लगता है. कई बार तो तब भी मंजूरी नहीं मिलती. जाहिर है भारत की दवाओं के लिए चीन में पैठ में वहां की सरकार अडंगे डालती है जबकि भारत में नियम लचीले हैं. बताते चलें कि बिना रजिस्ट्रेशन के किसी भी दवा की उस देश में बिक्री, परीक्षण या फ्री डिस्ट्रीब्युशन नहीं किया जा सकता. लाजमी है कि भारत की दवा कंपनियों ने चीन के आगे घुटने टेक दिए. हम इतने नाजुक स्तर पर आ गए हैं जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा है.

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पिछले साल यह मामला संसद में उठा था. चीन पर दवाओं के लिए भारत की निर्भरता पर नेशनल सिक्युरिटी एडवाइजऱ डोभाल ने भी आगाह किया था जिसका जिक्र ऊपर किया गया था. उसके बाद केन्द्र सरकार ने कटोच कमेटी का गठन भी किया जिसने अनुशंसा की कि देश में बल्क ड्रग के निर्माण को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए दवा निर्माताओं को टैक्स सहित कई रियायतें दी जाए. इसमें भी कुछ खास नहीं हो सका.

पिछले कई दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां सरकारी नीतियों के कारण बीमार हो गई है. विभिन्न दलों की सरकारें आती जाती रही लेकिन किसी ने भी देश को दवाओं के मामले में आत्मनिर्भर बनाने पर उतना ध्यान नहीं दिया. हम धीरे-धीरे आयात पर निर्भर होते गए. यदि सरकारी दवा कंपनियां मजबूत होती तो देश को चीन का मुंह नहीं ताकना पड़ता. अगर सरकारी दवा कंपनियों की हालत पर बात करें तो 2015-16 में भारतीय दवा बाज़ार 1.85 लाख करोड़ रुपयों का था जबकि आईडीपीएल, एचएएल, कर्नाटक एंटीबायोटिक, राजस्थान ड्रग एंड फार्मास्युटिकल्स और बेंगाल केमिकल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां का कुल कारोबार 550 करोड़ रुपये से थोड़ा ही अधिक था. यह विषमता अपने आप में सारी कहानी कहने में समर्थ है कि चीन पर निर्भरता पूरी तरह से बाजार आधारित नहीं है. इसमें खेल कुछ और भी है. यह वह दौर था जब विदेशी दवा कंपनियों की भारत के बाजार में दखल बढ़ रही थी. वे भारतीय कंपनियों का अधिग्रहण कर रही थीं. निजी क्षेत्र के कॉरपोरेट कल्चर वाले अस्पतालों का स्वर्ण युग शुरू हुआ था. सरकारी दवा कंपनियां की स्थिति दयनीय हुई या कर दी गई और वे देश की आवश्यकता के अऩुसार दवाओं का निर्माण करने में असमर्थ होती चली गईं. दूसरी तरफ, मुनाफाखोरी की आस में निजी दवा कंपनियों ने देश को चीन पर निर्भर बना दिया.

तो अगर हम चीन की झालर, खिलौने, दीये, कपड़े मंगाना बंद कर दें तो देश की सेहत पर कोई असर नहीं होने वाला. इन सबके बिना गुजारा आसानी से हो जाएगा. लेकिन अगर दवाएं न आईं या चीन ने देना बंद कर दिया तो हम शायद उतनी सहज स्थिति में न होंगे. देश की सरकार को चाहिए कि वह इसे प्राथमिकता सूची में भी सबसे ऊपर रखे क्योंकि जान है तो जहान है. अमीर-गरीब सबको इनकी जरूरत है. हमें चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से अधिक सरकार पर यह दबाव बनाने की जरूरत है कि वह देश में दवा निर्माण के लिए युद्धस्तर पर प्रयास करे, इससे पहले कि देर हो जाए.

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