कांग्रेस की ढाक के वही तीन पात…

कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में वही हुआ जो कांग्रेस की अब तो परंपरा बन चुकी है. ट्विटर पर वार के बाद विडीयो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से हुई मीटिंग में आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर से कमान सोनिया गांधी को सौंप दी गई. राहुल के खेमे ने उनमें कांग्रेस का भविष्य देखते हुए उन्हें फिर से अध्यक्ष बनाने की जोरदार मांग उठाई. मतलब कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी के आगे राहुल गांधी ही होंगे, इसका माहौल तैयार हो गया है.

यही बात कांग्रेस के पुराने नेताओं को खटक रही है. इसलिए कार्यसमिति की बैठक के बाद गुलाम नबी आजाद के घर पर भी कुछ नेताओं की एक बैठक हुई.
यह बैठक ऑनलाइन नहीं थी. मुलाकात हुई, जाने क्या बात हुई. पर इतना तो तय है कि कांग्रेस ऑल इज वेल का जो मैसेज देने की कोशिश कर रही है वह स्थिति दरअसल है नहीं. सोनिया गांधी को नया अध्यक्ष चुने जाने तक फिर से अंतरिम अध्यक्ष बनाये रखने का फैसला कहा तो जा रहा है कि आम राय से हुआ है और छह महीने में नया अध्यक्ष चुना जाएगा पर लगता नहीं है कि यह हैप्पी एंडिंग थी.

पर क्या फैसला वाकई आम राय से ही था. 23 नेताओं ने चिट्ठी लिखकर पहले ही जता दिया है कि वे अब गांधी परिवार से बाहर देखने को लालायित हैं. आम चुनावों में लगातार दो करारी हार और राज्यों में छोटे दलों से भी खराब स्थिति के साथ-साथ भाजपा द्वारा राहुल को सोशल मीडिया पर नाकारा घोषित कर दिए जाने और सोनिया के बीमार होने की वजह से पुराने नेताओं को लगता है कि अभी नहीं तो कभी नहीं. यही सही समय है कांग्रेस को गांधी परिवार से आगे देखने के लिए तैयार करने को. इसलिए दबे स्वर में ही सही, बगावत के सुर उभरने तो लगे हैं.

नेताओं को जल्दबाजी इसलिए भी है क्योंकि उन्हें लगता है कि देर होने से प्रियंका खुद को इसके लिए तैयार कर लेंगी. प्रियंका युवा हैं इसलिए उनके हाथ में कमान जाने का मतलब है कि लंबे समय तक फिर से कमान गांधी परिवार में रहेगा और इस बीच राहुल और प्रियंका के भरोसेमंदों की नई खेप तैयार हो जाएगी.

लेकिन क्या यह मांग पूरी तरह गैर-वाजिब है? राहुल अध्यक्ष के तौर पर असर नहीं छोड़ पाए इसलिए अब उन्होंने बैकडोर एंट्री ली ही. अध्यक्ष न रहते हुए भी अध्यक्ष की भूमिका में हैं. राज्यसभा का टिकट वह तय करते हैं, राज्यों के झगड़े वही सुलझाते हैं, पार्टी की पंचायत वहीं करते हैं, पार्टी लाइन वही तय करते हैं, भाजपा पर हमले की कमान वही संभालते हैं, सारे प्रवक्ता या तो उनकी लाइन पर उनका पक्ष ले रहे होते हैं या फिर उनके द्वारा बिखेरा गया रायता समेट रहे होते हैं पर वह अध्यक्ष नहीं है. उन पर कोई जवाबदेही नहीं लादी जा सकती क्योंकि वह अध्यक्ष नहीं हैं. यानी दोनों हाथों में लड्डू और सर कड़ाही में.

ऐसे में अगर पुराने कांग्रेसी आवाज क्यों न उठाएं? और वार करने का सबसे आदर्श समय तभी होता है जब प्रतिद्वंद्वी कमजोर हो. उन्होंने आवाज उठाई और निशाने पर आ गए. उनके लिए राहत की बात यह है कि सभी पुराने लोग हैं और कम से कम 23 लोग सरेआम हैं. इसलिए तुरत-फुरत कार्रवाई का जोखिम कांग्रेस उठा नहीं सकती.

कांग्रेस में गांधी परिवार को परामर्श देना या अपनी बात कह देना एक ऐसा गुनाह हो जाता है जिसके लिए कोई माफी नहीं है. उसे गद्दार बताकर उसकी आवाज दबाने की कोशिश होने लगती है. कपिल सिब्बल और गुलाम नबी जैसे वरिष्ठतम नेताओं के साथ ऐसा हो रहा है तो बाकियों की क्या बिसात.

चमचागिरी की प्रवृत्ति इतनी हावी हो गई है कि महाराष्ट्र के कांग्रेसी मंत्री ने पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, पूर्व केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक और पूर्व अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा जैसे नेताओं को धमकाया है कि अगर नेतृत्व को पत्र लिखने के लिए वे माफी नहीं मांगते तो महाराष्ट्र में इन तीनों नेताओं का चलना-फिरना मुश्किल कर देंगे. एक नया-नया मंत्री पुराने नेताओं को ऐसी चुनौती देने लगे तो समझ लीजिए कि हालात बद से बदतर बन चुके हैं.

ऐसी ही चाटुकारी परंपरा ने के. कामराज और देवराज अर्स जैसे कद्दावर नेताओं को उसी पार्टी के खिलाफ आवाज उठाने को विवश किया था जिसे उन्होंने अपना खून-पसीना देकर सींचा था. गांधी परिवार के लिए राहत की बात यह है कि फिलहाल कामराज या अर्स जैसे जमीनी नेता का अभाव है अन्यथा पार्टी में टूट के लिए आदर्श माहौल तैयार है. अगर चेते नहीं तो देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए अच्छे दिन कभी नहीं आने वाले हैं.

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