एनआरसी – देसी कौन, परदेसी कौन

एनआरसी वैसे तो एक ऐसी सूची है जिसमें असम के उन बाशिंदों के नाम दर्ज होंगे जिनके पास 24 मार्च 1971 तक या उसके पहले अपने परिवार के असम में होने के सबूत होंगे. बहुत से किंतु परंतु के बीच उलझा जितना लंबा यह विवाद है उतना ही पेचीदा मुद्दा.

राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी जिसे अभी सिर्फ असम के लिए तैयार किया गया है और पूरे देश में इसे बनाए जाने की चर्चा है, की कहानी लिखने से पहले दिमाग में एक घटना घूम आती है जिसे आजाद भारत का एक रात का सबसे बड़ा नरसंहार कहा जाता है. इस नरसंहार का अगर एनआरसी से सीधे-सीधे संबंध नहीं माना जाए तो भी परोक्ष संबंध से इंकार नहीं किया जा सकता. गुवाहाटी से लगभग 70 किलोमीटर नौगांव जिले के नेल्ली और उसके आसपास के 14 गांवों के लिए 18 फरवरी 1983 की रात कयामत की रात थी. दंगाइयों की भीड़ ने एक रात में 1800 लोगों को या तो काट दिया था या फिर आग में झोंक दिया था. 1800 लोगों की हत्या की बात तो सरकार ने स्वीकार की थी, गैर-सरकारी आंकड़ें इसे 3000 से ऊपर बताते हैं. दंगाइयों ने पूरी रात आतंक मचाया था. लोग जान बचाकर कुछ किलोमीटर दूर सीआरपीएफ के कैंप की ओर भाग रहे थे. औरतें और बूढे जो तेजी से भाग नहीं पाए उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. इस घटना से असम से लेकर दिल्ली और दुनिया तक हिल गई थी. इस घटना का एनआरसी से क्या नाता? यह घटना उन्हीं बांग्लादेशी प्रवासियों के लेकर असम के मूल निवासियों के आक्रोश का परिणाम थी जिसके कारण असम छह साल तक झुलसा था और अंततः एनआरसी के लिए भारत सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुई थी.  

जब इंदिरा गांधी सरकार ने 1970 और 71 तक बांग्लादेश से आये 40 लाख मुसलमान शरणार्थियों को वोटिंग का अधिकार दे दिया था. इससे असम में तनाव फैल गया. असम के मूल निवासियों को लगा कि इस तरह तो उनके लिए अपनी जमीन ही कम पड़ती जा रही है. राज्य में तनाव था और राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था. माहौल को शांत होने की प्रतीक्षा किए बिना इंदिरा गांधी ने 1983 में विधानसभा चुनाव कराने का निर्णय ले लिया. इससे बौखलाहट बढ़ गई. इससे पहले प्रवासी मुस्लिम छात्रों के संगठन और ऑल असम छात्र संगठन के बीच दो बार हिंसक झड़पें हो चुकी थीं. नेल्ली नरसंहार के बाद सरकार चेती. इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने और 15 अगस्त 1985 को असम आंदोलन के नेताओं के साथ उन्होंने एक समझौता किया जिसमें 25 मार्च 1971 के बाद असम आए लोगों को अवैध अप्रवासी या घुसपैठिए माने जाने और उनकी पहचान के लिए एक प्रक्रिया शुरू करने पर सहमति हुई. एनआरसी उसी प्रक्रिया से तैयार एक नागरिकता रजिस्टर का नाम है जो असम के नागरिकों और घुसपैठियों के बीच अंतर करता है.

विस्तार से पढ़ें नागरकिता कानूनः एक पुराना मर्ज

यह तो थी इसकी पृष्ठभूमि इसके अतीत की बात. अब वर्तमान में लौटते हैं. 30 जुलाई को असम के लिए नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) का मसौदा जारी हुआ. असम में एनआरसी, सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में तैयार किया जा रहा है ताकि बांग्लादेश के उन अप्रवासियों की पहचान हो सके जो अवैध रूप से भारत की सीमा पार करके यहां आ गए हैं. बीजेपी ने 2016 का चुनाव असम को गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासियों से मुक्त कराने के वादे के बल पर जीता था. पार्टी को अब लगता है कि “बाहरी लोगों के भय” जैसा मुद्दा, राष्ट्रीय स्तर पर भी असर दिखा सकता है इसलिए देशभर के भाजपा नेताओं ने पूरे देश में एनआरसी तैयार करने की मांग उठाई और अंततः गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कह भी दिया कि 2024 तक एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी तैयार किया जाएगा. हालांकि इस मामले पर खूब बवाल हुआ और इसके एक पखवाड़े के भीतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान की एक रैली में देशव्यापी एनआरसी के किसी भी प्रस्ताव पर चर्चा की बात से साफ इंकार कर दिया. खैर लोकसभा की बातें रिकॉर्ड का हिस्सा होती हैं, रैलियों की बातें जनमानस को आश्वासन. इसलिए इस मुद्दे को अभी असम तक सीमित रखते हैं जहां के लिए एनआरसी तैयार हो गई है लेकिन खुद भाजपा ने उसे अस्वीकार कर दिया है.     

असम के एनआरसी में 40 लाख लोगों का नाम बाहर हो गया और अमित शाह ने उन्हें "घुसपैठिया" बताने में कोई समय नहीं गंवाया. हालांकि बाद की मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि बहुत से वास्तविक भारतीय नागरिक कागजी कारर्वाई पूरी नहीं करा पाने के कारण एनआरसी में अपना नाम जुड़वाने में असफल रहे हैं. इसके विपरीत, ऐसे लोग जिन्हें विदेशी लोगों की ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी नागरिक घोषित किया जा चुका है, उनके नाम भी एनआरसी में शामिल हैं. यह ट्रिब्यूनल 1964 से एक अर्ध अदालत के रूप में आप्रवासन के मामलों का निर्णय कर रहा है. इस पर संज्ञान लेते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी के अंतिम मसौदे के कम से कम 10 प्रतिशत नामों के नमूने का पुनर्सत्यापन करने का आदेश दिया.
बीजेपी ने इसे भारतीय बनाम बाहरी का रंग दे दिया है तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एनआरसी को बांग्लाभाषी लोगों के खिलाफ भाजपा के पूर्वाग्रह के रूप में पेश करके, बांग्ला गर्व या असुरक्षा के मुद्दे को हवा देकर अपना मतलब साधने की कोशिश करती नजर आती हैं. अधिकांश बांग्लादेशी प्रवासियों के मुसलमान होने के कारण, दोनों पार्टियां अपने-अपने हिंदू और मुस्लिम वोट बैंकों को मजबूत करने में जुटी हैं. आप्रवासियों को मुसलमानों के रूप में पेश करके इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरे के रूप में दिखाना, बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे में अगर फिट बैठता है तो ममता उसे उछालकर किसी भी हाल में बंगाल के अपने मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट रखना चाहती हैं ताकि मुस्लिम वोट कांग्रेस और वामदलों के बीच बंटने न पाए. हालांकि बीजेपी अब भी चुनावी ताकत में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से बहुत पीछे है, लेकिन वह अब राज्य की नंबर दो पार्टी हो चुकी है. पिछले साल ममता ने मुहर्रम के ताजिए निकालने के लिए दुर्गा मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबंध लगा दिया था. ऐसे मुद्दे उछालकर वह ममता के कथित मुस्लिम तुष्टिकरण का प्रचार करके हिंदू वोटों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए काम कर रही है. 
एनआरसी का विरोध करके ममता एनआरसी में छूट गए अपने मुस्लिम मतदाताओं, विशेष रूप से बांग्लाभाषी बांग्लादेशी मुस्लिमों के प्रति अपना समर्थन जताकर उस वोटबैंक को मजबूत कर रही हैं. ममता ने 2005 में संसद में बंगाल के अवैध आप्रवासियों के मुद्दे को उठाने की कोशिश की थी लेकिन आज उन्होंने अपने ही पुराने रूख से पलटी मार ली है. ऐसा करने वाली वही एकमात्र नेता नहीं है. 6 मई, 1997 को तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने संसद को बताया था कि भारत में एक करोड़ से अधिक अवैध आप्रवासी रह रहे थे, जिनमें से 54 लाख पश्चिम बंगाल में और 40 लाख असम में बसे हुए थे.
फिर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने भी यूपीए सरकार के दौरान अवैध घुसपैठियों पर जो ताजा आंकड़ा दिया था उसमें भी ऐसी ही बात कही गई थी. 14 जुलाई 2004 को उन्होंने बताया कि 31 दिसंबर, 2001 तक असम में 50 लाख और पश्चिम बंगाल में 57 लाख से अधिक अवैध बांग्लादेशी रह रहे थे. जायसवाल के इस बयान पर असम की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अपना विरोध जताया था और बात प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंची तो जायसवाल को अंततः अपना बयान वापस लेना पड़ा. लेकिन अवैध आप्रवासियों का मुद्दा खत्म नहीं हुआ था. 16 नवंबर 2017 को गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने राज्यसभा में दावा किया कि देश में करीब 2 करोड़ अवैध आप्रवासी रह रहे हैं. 2010 में, महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह राज्यमंत्री रमेश बागवे ने कहा था कि राज्य में 3,50,000 अवैध आप्रवासी थे. बीजेपी के सांसद किरीट सोमैया का दावा है कि मुंबई महानगरीय क्षेत्र में ही 16 लाख विदेशी हैं. दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने दिल्ली में 20 लाख अवैध आप्रवासियों के बसे होने पर चिंता जताई थी और उन्हें संसाधनों पर बोझ के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती बन गए हैं. आप्रवासियों को, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम हैं, भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बताना हिंदू वोटों को लामबंद करने में मददगार साबित होता है. रिजिजू ने फरवरी 2017 में घोषणा की थी कि "हिंदू आबादी घट रही थी क्योंकि हिंदू कभी भी किसी अन्य धर्मावलंबियों का धर्म परिवर्तित नहीं कराते और पड़ोसी मुल्कों से उलट भारत में अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ती जा रही है." 
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में एक रैली में पूछा था, "ममता दीदी और कांग्रेसी नेता, कृपया स्पष्ट करें आप इस देश के साथ खड़े हैं या देश में केवल वोट बैंक की राजनीति के लिए जमे हैं? मैं जनता से पूछना चाहता हूं, क्या बांग्लादेशी घुसपैठिए भारत की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हैं?" 
असम की एनआरसी से बाहर रह गए लोगों में से कम से कम 30 प्रतिशत हिंदू हैं और ये बीजेपी के समर्थक रहे हैं. आरएसएस तब से ऐसे लोगों को भारत की नागरिकता देने की बात करती रही है जब बीजेपी की पूर्वोत्तर में कोई पैठ भी नहीं हुआ करती थी. बीजेपी अब चूंकि पूर्वोत्तर में और केंद्र में सत्ता में इसलिए इन हिंदुओं को भारत की नागरिकता देना उसके असम और बंगाल के चुनावी हितों को तो साधता ही है साथ ही साथ उसके हिंदुत्व के एजेंडे पर भी सटीक बैठता है. इसीलिए नागरिकता संसोधन कानून बनाया गया. नागरिकता संसोधन कानून की पूरी पृष्ठभूमि को विस्तार से जानने के लिए जरूर पढ़ें नागरिकता कानूनः एक पुराना मर्ज 
भाजपा अब असम और पश्चिम बंगाल में अपनी चुनावी संभावनाओं के बीच संतुलन कायम करने के लिए एक बीच का रास्ता तलाश रही है. संसाधनों के अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों द्वारा हड़प लिए जाने के असमिया लोगों की चिंता को दूर करने के लिए बीजेपी, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम आंदोलन के छात्र नेताओं के बीच हस्ताक्षर किए गए 1985 के असम समझौते के खंड 6 पर फोकस कर रही है क्योंकि बंगाल जीतने के अपने सपने के लिए वह असम और पूर्वोत्तर को गंवाना भी नहीं चाहेगी. समझौते का खंड 6 असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत की रक्षा, संरक्षण और प्रचार के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा प्रदान करने की बात कहता है. 
बहरहाल, नागरिकता कानून के संसद में आने और उसके पारित हो जाने के बाद से असम सहित पूरे देश में जितना विरोध हुआ उसे देखते हुए यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को कोशिश करनी होगी कि असम कहीं फिर से 80 के दशक में न पहुंच जाए. सभ्य समाज और नेल्ली स्वीकार नहीं सकता. हालांकि दोनों ही जगहों पर बीजेपी के सत्ता में होने से आशा की जानी चाहिए कि सरकार असमिया लोगों को उनके अधिकारों की रक्षा का भरोसा दिलाने में सफल रहेगी. यह प्रदेश ही नहीं पूरे देश के लिए जरूरी है.    

Several estimates of illegal immigrants have been given in Parliament

6 मई, 1997: केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता ने यह संख्या एक करोड़ बताई, जिसमें से 54 लाख पश्चिम बंगाल में और 40 लाख असम में.

14 जुलाई 2004: केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने अवैध आप्रवासियों की संख्या1.2 करोड़ बताई, जिसमें से 57 लाख पश्चिम बंगाल में और 50 लाख असम में, 16 नवंबर 2017: केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने देश में 2 करोड़ अवैध आप्रवासियों के होने की बात कही.

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