दिल्ली का दबंग कौन ?

दिल्ली विधानसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. भाजपा और आप जहां अपने-अपने तरकश तीरों से भरकर मैदान में उतरने को तैयार हैं वहीं कांग्रेस मूर्च्छा से बाहर नहीं आ पा रही.

करीब एक महीने पहले आम आदमी पार्टी के राज्यसभा में नेता संजय सिंह ने एक ट्वीट किया. “दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के तीन दावेदार हैं तीनों हमारे संपर्क में हैं. इनमें से किसी एक को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता है तो बाकी दो हमारी पूरी मदद करेंगे.” बेशक संजय सिंह का यह ट्वीट एक राजनीतिक स्पिन हो सकता है लेकिन दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी के नेता के इस ट्वीट के कई मायने निकाले जा सकते हैं. यह ट्वीट इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पिछली गलतियों से सचेत हैं और इस बार दिल्ली को लेकर कोई ढील नहीं देंगे.

भाजपा दिल्ली विधानसभा की लड़ाई को कितनी गंभीरता से और किस स्तर पर लड़ने की तैयारी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 70 सीटों वाले प्रदेश में चुनाव प्रबंधन के लिए तीन-तीन केंद्रीय मंत्रियों को लगाया गया है. झारखंड जैसे दिल्ली से कहीं बड़े राज्य में पार्टी ने एक चुनाव प्रभारी और एक सह-प्रभारी बनाया है वहीं दिल्ली को विधायकों की संख्या में देश के दूसरे बड़े राज्य महाराष्ट्र के बराबर वरीयता दी गई है. महाराष्ट्र में भी एक प्रभारी और दो सह-प्रभारी बनाए गए हैं लेकिन दिल्ली में पार्टी ने अपने ज्यादा हाईप्रोफाइल नेताओं को लगाया है. कैबिनेट मंत्री प्रकाश जावडेकर चुनाव प्रभारी हैं तो केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय और केंद्रीय शहरी विकास राज्यमंत्री हरदीप सिंह पुरी सह-प्रभारी हैं. श्याम जाजू पार्टी के दिल्ली प्रदेश प्रभारी हैं. पार्टी ने दिल्ली के लिए सदस्यता अभियान की अवधि को सप्ताह भर के लिए बढ़ा भी दिया था. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दिल्ली की जंग में कोई कोताही नहीं की जाएगी. केंद्रीय नेतृत्व द्वारा इतनी सक्रियता का कारण है पार्टी की दिल्ली इकाई में जबरदस्त खेमेबाजी और संजय सिंह का ट्वीट इसी को उजागर करता है.

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आम आदमी पार्टी जनता के सामने अपने पांच साल के कामकाज के साथ-साथ अरविंद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के चेहरे के साथ फिर से चुनावों में जाएगी. देश के बड़े मीडिया घरानों द्वारा लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों के लिए कराए गए पिछले कुछ सर्वे में केजरीवाल देश के टॉप-5 लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों के रूप में सामने आए हैं. उनकी सरकार की लोकप्रियता के ग्राफ में भले ही गिरावट आई हो लेकिन व्यक्तिगत लोकप्रियता का ग्राफ स्थिर है. इस बात से भाजपा चिंतित है. केजरीवाल ने एक के बाद एक लगातार लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं शुरू कर दी हैं इससे भी भाजपा के कान खड़े हुए हैं. दिल्ली सरकार ने पहले अवैध कालोनियों को वैध करने की घोषणा की जिसे मोदी सरकार द्वारा धारा 370 हटाए जाने के बाद भाजपा के पक्ष में बनती लहर का काउंटर उपाय माना गया और उसका असर भी रहा. प्रकाश जावडेकर ने प्रभारी बनने के बाद पश्चिमी जिला की पहली मीटिंग ली उसमें भी कार्यकर्ताओं ने अवैध कालोनियों के मामले का कोई अच्छा तोड़ निकालने की मांग रखी. उसके बाद दिल्ली सरकार ने 200 युनिट तक की बिजली खपत करने वालों के लिए बिजली के बिल माफ करने की घोषणा कर दी. पानी के भी सारे बकाया बिल माफ कर दिए गए. 29 अक्टूबर से महिलाओं के लिए बस का सफर फ्री हो जाएगा. यानी एक के बाद एक फैसले लेकर केजरीवाल चौंकाते जा रहे हैं जिसका तोड़ निकालने के लिए भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को कुछ अलग सोचना होगा. इसके लिए चुनाव का या तो नया नैरेटिव सेट करना होगा या फिर इसे इतना हाईप्रोफाइल कर देने की जरूरत होगी कि वोटर को चौंकाया जा सके.

भाजपा ने दोनों स्तर पर काम शुरू किया है. जहां तक चुनाव का नया नैरेटिव तलाशने की बात है यहां पर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को मुद्दा थमा दिया है. भाजपा देशभर में घुसपैठियों को मुद्दा बनाते हुए एनआरसी की बातें कर रही है. केजरीवाल ने पहले तो भाजपा के प्रदेश अध्य़क्ष मनोज तिवारी को सबसे पहले एनआरसी के कारण दिल्ली से निष्काषित किए जाने का पात्र बता दिया. तिवारी ने इस विषय को बिहारी अस्मिता से जोड़ने में कोई समय नहीं गंवाया और यह संदेश देने की कोशिश की कि केजरीवाल बिहारियों को दिल्ली में पसंद नहीं करते. वह उन्हें यहां से भगाना चाहते हैं. इसके बाद उन्होंने कह दिया कि बिहार से 500 रुपए का ट्रेन का टिकट कटाकर बिहारी दिल्ली आ जाते हैं और यहां 5 लाख का इलाज कर रहे हैं. इससे दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ रहा है. उनके इस बयान पर न सिर्फ राजनीतिक वर्ग ने बल्कि सामाजिक संगठनों ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी. दिल्ली में बिहार के लोगों की संख्या अच्छी खासी है. खुद आम आदमी पार्टी के चार विधायक भी मूल रूप से बिहार से ताल्लुक रखते हैं. यानी भाजपा के लिए आधा मैदान तो खुद आम आदमी पार्टी ने सजा दिया है.

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सूत्रों से जो खबरें छनकर आ रही हैं वह भाजपा के दूसरे गेमप्लान का संकेत देती हैं- चुनाव की चर्चा को दिल्ली से हटाकर देश के मुद्दों से जोड़कर इसे बहुत हाईप्रोफाइल बना देना. यह चर्चा क्रिकेटर और पूर्वी दिल्ली के सांसद गौतम गंभीर के उस बयान के बाद तेज हो गई है जब उन्होंने कहा कि दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना एक बड़ी जिम्मेदारी जैसा होगा जिसे निभाना एक बड़ी बात होगी. खबर है कि भाजपा ने एक तीर से कई शिकार की तैयारी की है. दिल्ली की गुटबाजी को खत्म करने के लिए पार्टी सभी दावेदारों को विधानसभा की रेस में उतारेगी. इसके कई फायदे होंगे. पिछली बार किरण बेदी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के साथ ही भाजपा का एक बड़ा वर्ग घर बैठ गया था. इसलिए सभी नेता अपने-अपने किले बचाने में जुट जाएंगे क्योंकि सबको यह उम्मीद रहेगी कि उसका नंबर आ सकता है. इसलिए वे नहीं चाहेंगे कि सीटों की संख्या कम हो. दूसरा, दिल्ली में भाजपा के पास भले ही फिलहाल केजरीवाल के कद का कोई नेता नहीं है लेकिन उसके पास कई ऐसे नेता हैं जिनके बूते वह कई तरह के समीकरण साध सकती है. आम आदमी पार्टी के साथ समस्या यह है कि उसके पास केजरीवाल के बाद कोई दूसरा ऐसा बड़ा नेता नहीं है जिसका कोई जनाधार हो. तो अगर भाजपा कई हाईप्रोफाइल नेताओं को उतार देती है तो केजरीवाल के लिए संभालना मुश्किल हो जाएगा. केजरीवाल के पास ऐसे कोई स्टार प्रचारक भी नहीं हैं जो उनके उम्मीदवारों की मदद को आ सकते हैं जबकि भाजपा योगी आदित्यनाथ से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा के कई बड़े नेताओं को दिल्ली में उतार सकती है. इन राज्यों के निवासी भारी संख्या में दिल्ली के वोटर हैं.

चर्चा है कि अरविंद केजरीवाल के सामने पार्टी अपने नए चेहरे गौतम गंभीर को ला सकती है. उत्तर-पूर्वी दिल्ली की किसी सीट से वहां के सांसद मनोज तिवारी को तो चांदनी चौक के सांसद और केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को विधानसभा अध्यक्ष राम निवास गोयल के सामने शाहदरा से या फिर उनकी अपनी ही पुरानी सीट कृष्णानगर से उतारा जा सकता है. केजरीवाल के खासमखास सत्येंद्र जैन के सामने विजय गोयल को उतारा जा सकता है. मनीष सिसोदिया को पूर्वी दिल्ली के पूर्व सांसद महेश गिरी चुनौती दे सकते हैं. उसी तरह आप के जाट नेता कैलाश गहलोत के सामने किसी लोकप्रिय जाट चेहरे को उतारा जा सकता है. बाहरी दिल्ली जहां देहाती वोटर बहुतायत हैं वहां से डांसर सपना चौधरी पर भी भाजपा दांव खेल सकती है. उस इलाके पर हरियाणा का प्रभाव रहता है और सपना चौधरी वहां उपयोगी साबित हो सकती हैं.

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आम आदमी पार्टी के कान भी इससे खड़े हुए हैं. चर्चा है कि आप ने इसके मुकाबले के लिए कांग्रेस के दिल्ली के पुराने दिग्गजों को अपने खेमे में लाने की तैयारियां शुरू की हैं. कांग्रेस के कई पूर्व विधायकों मंत्रियों और सांसदों के साथ पार्टी संपर्क में है. पूर्व सांसद महाबल मिश्रा के साथ-साथ दिल्ली के मंत्री और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली, हारून युसूफ और कई नेताओं के साथ आप नेता संपर्क में हैं.

बहरहाल सबसे ज्यादा निराशा तो प्रदेश में लगातार तीन बार सत्ता में काबिज रही कांग्रेस में दिखती है जिसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिल सकता है. आप और कांग्रेस का वोट बैंक एक जैसा है. पहले विधानसभा उपचुनावों में फिर हालिया लोकसभा चुनावों में कांग्रेस द्वारा अपना प्रदर्शन सुधारने का सबसे ज्यादा खामियाजा आप को हुआ है. पश्चिमी दिल्ली के रजौरी गार्डन सीट से आप के जरनैल सिंह के इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव में जहां भाजपा समर्थित अकाली दल प्रत्याशी की जीत हुई थी वहीं कांग्रेस दूसरे नंबर पर नहीं. और सत्ताधारी आम आदमी पार्टी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई. बवाना से आप के विधायक के इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस अपना प्रदर्शन नहीं सुधार पाई जिसके कारण आप ने वहां से बाजी मार ली. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस दिल्ली में मजबूती से लड़ी तो सात में से चार सीटों पर आप के प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. यानी कांग्रेस के प्रदर्शन पर आप का प्रदर्शन बहुत हद तक निर्भर करता है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस बेहाल तो है ही, शीला दीक्षित के निधन के बाद दिल्ली में भी जबरदस्त कोहराम मचा हुआ है. शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित प्रदेश कांग्रेस प्रभारी पी.सी. चाको को अपनी मां की मौत का जिम्मेदार बताकर अदालत में घसीटने तक की तैयारी में बताए जाते हैं. चाको के खिलाफ दिल्ली के सभी पुराने नेताओं ने हल्ला बोल दिया है. चुनाव में चार महीने शेष हैं पर प्रदेश अभी भी तीन कार्यकारी अध्यक्षों के भरोसे चल रहा है. सोनिया गांधी प्रदेश के लिए एक स्वीकार्य नाम तय नहीं कर पा रही हैं. कुल मिलाकर कांग्रेस ने रेस की शुरुआत से पहले ही खुद को बाहर कर लिया है.

हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के बाद भाजपा पूरी तरह से दिल्ली के लिए जुट जाएगी. आप ने खुद को हरियाणा से किनारे कर लिया है और वह पूरी तरह दिल्ली पर फोकस है. देखना होगा कि भाजपा दिल्ली का अपना 21 साल का बनवास इस बार खत्म कर पाती है या फिर खुद को दिल्ली के असली मालिक कहने वाले अरविंद केजरीवाल को ही जनता एक बार फिर से मौका देती है. जंग एक बार फिर आमने-सामने की होगी और पलड़ा तो फिलहाल किसी का कमजोर नहीं दिखता. मैदान जो भी मारे, मुकाबले का रोचक होना तय है.

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प्रति माह दो सौ यूनिट तक बिजली बिल माफ करने के बाद केजरीवाल सरकार ने पानी का बकाया बिल भी माफ करने की घोषणा की है। विधानसभा चुनाव से पहले इन घोषणाओं में AAP नेता सियासी लाभ देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि इसके जरिये वे नरेंद्र मोदी सरकार के फैसलों खासकर जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने से भाजपा को मिलने वाले चुनावी लाभ का मुकाबला कर सकेंगे। यही कारण है कि वे इसे जनता के बीच में प्रचारित करने में लग गए हैं, लेकिन भाजपा भी इसे लेकर सतर्क है। वह अरविंद केजरीवाल सरकार के फैसलों पर सवाल खड़ा करते हुए इसे चुनाव से पहले जनता को गुमराह करने वाला कदम बता रही है।

उन्होंने एक तरह से तीनों दिल्ली जैसे-जैसे चुनाव की ओर बढ़ रही है वैसे-वैसे सभी दलों में खींचतान भी बढ़ती जा रही है. जाहिर है सबसे ज्यादा खींचतान उस दल में दिखेगी जिसके लिए संभावनाएं सबसे ज्यादा हों, जिसकी ऊर्जा सबसे ज्यादा हो. वैसे तो दिल्ली की सत्ता पर आम आदमी पार्टी काबिज है लेकिन नजरें सबसे ज्यादा भाजपा पर हैं. केंद्र में पिछली बार से अधिक जोरदार वापसी और फिर कश्मीर से 370 को हटाने से भाजपा जितनी उत्साहित दिखती है उतनी ही अंतर्द्वंद्व में उलझी भी. 2015 के चुनाव में दिल्ली की प्रदेश इकाई में इस हद तक आपसी फूट थी कि न तो केंद्रीय नेतृत्व और न ही संघ, समय रहते संभाल पाया और नतीजा हुआ कि पार्टी मात्र तीन सीटों पर सिमट गई. अरविंद केजरीवाल को जनता ने प्रचंड बहुमत से दिल्ली की गद्दी दी. लेकिन उसके बाद से बहुत कुछ बदल चुका है. केजरीवाल ने डेढ़ महीने में कुर्सी छोड़ दी थी और जनता से कई लंबे-चौड़े वादों के साथ पूरा समर्थन मांगा था. जनता ने उन्हें वह समर्थन दिया भी लेकिन पांच साल में से आधा वक्त उन्होंने एलजी के साथ अपने अधिकारों के लिए झगड़ते और मोदी सरकार को कोसते बिताया. सारे वादे पूरे न हो सके. तब उनके सामने सत्ताविरोधी लहर नहीं थी लेकिन अब पांच साल सत्ता में रहने के बाद उन्हें नाकामियों के लिए भी जवाब देने होंगे. जाहिर है इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिलेगा.

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