दिल्ली का रणः सूरमाओं के सधे कदम…

दिल्ली की जंग तो भाजपा और आप के बीच ही होनी है. दोनों दलों की ताकत ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो जाती है. न्यूजऑर्ब360 का विश्लेषण

दिल्ली का रणः कहते हैं दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है. ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2019 में तीन राज्यों में मिली हार से कुछ सबक लेने का फैसला किया है. दिल्ली में, भाजपा की लड़ाई मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) से है जो मजबूती से जमी है. आप पार्टी को शिकस्त देने के लिए 2015 में भाजपा ने एक नए और ईमानदार चेहरे के तौर पर किरण बेदी को आगे किया था जिसका परिणाम हुआ कि आपसी गुटबाजी में उलझे पार्टी के नेता, बाहरी व्यक्ति को हराने के लिए एक हो गए. खुद मुख्यमंत्री की प्रत्याशी किरण बेदी उस सीट से अपनी जीत सुनिश्चित नहीं कर सकीं जो भाजपा के लिए सबसे सेफ सीट में से गिनी जाती थी. मजे की बात यह कि उस कृष्णागर सीट से 2000 वोटों से हार गई थीं जहां से 2014 के चुनावों में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के चेहरे और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन लगातार भारी मतों से जीतते आए थे.

चुनाव के बाद पार्टी की समीक्षा में स्पष्ट हुआ था कि दिल्ली राज्य के गठन के बाद से भाजपा को मिली इस सबसे बड़ी हार का कारण रही आपसी गुटबाजी और बाहरी नेता को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए भाजपा नेताओं की बेताबी. और यह तब हुआ था जब दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें 2014 में भाजपा ने ही जीती थीं. केंद्र में नरेंद्र मोदी के लिए जनता का समर्थन लगातार बढ़ रहा है. एक ऐसा नेता जिसे भ्रष्ट नहीं किया जा सकता वाली छवि के साथ मोदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. यही वजह है कि उन्हें जनता ने 2014 से भी ज्यादा बड़े बहुमत के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाया है लेकिन दिल्ली से सरकार चलाने वाले मोदी की छवि का फायदा दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा नही उठा पा रही. इसका जो सबसे बड़ा कारण है वह है दिल्ली भाजपा के पास उस तरह की विश्वसनीयता वाले नेता का अभाव जैसा भरोसा जनता का मोदी को लेकर है.

इसकी इस तरह भी व्याख्या की जा सकती है कि दिल्ली में मोदी ही भाजपा के लिए चुनौती या परेशानी का कारण बन जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि जनता को लगता है कि मोदी दिल्ली में ही रहकर सत्ता चलाते हैं लेकिन दिल्ली में एक भी ऐसा नेता नहीं खड़ा कर सके जो लोकप्रियता या कार्यशैली में उनके आसपास भी खड़ा होता हो. दिल्ली की जनता भाजपा से मोदी के एक प्रोटोटाइप नेता की आशा रखती है जिसमें मोदी की तरह काम करने की क्षमता हो और जो लोगों के साथ उसी सहजता से जुड़ जाता हो जैसा मोदी करते हैं. जनता ने दिल्ली में भाजपा के नेता को लेकर अपने मानदंड इतने ऊंचे कर लिए हैं कि कोई उसके करीब पहुंच नहीं पा रहा. और इसी का फायदा अरविंद केजरीवाल उठा लेते हैं.

केजरीवाल की छवि भी ऐसे नेता की है जिसे भ्रष्ट नहीं किया जा सकता. जो सबको उपलब्ध है और काम भी करता है. केजरीवाल की एक ही परेशानी थी- बेवजह सबके साथ उलझना, खासतौर से मोदी के साथ. देश में मोदी के प्रति एक क्रेज है जिससे उनके साथ उलझने वाला नेता फिलहाल जनता को बहुत पसंद नहीं आ रहा. केजरीवाल ने अपनी इस कमी को दुरुस्त कर लिया और उन्होंने मोदी पर हमले करने छोड़ दिए बल्कि 370 हटाने जैसे मुद्दों पर मोदी की प्रशंसा भी की. केजरीवाल को यह सबक एमसीडी चुनावों में हार के बाद मिला था. उड़ीसा चुनावों में नवीन पटनायक और फिर झारखंड चुनावों में हेमंत सोरेन की बड़ी जीत के बाद केजरीवाल के सलाहकारों ने तो उन्हें खासतौर से मोदी के खिलाफ बोलने से चेताया है. पटनायक और सोरेन ने केवल राज्यस्तरीय नेताओं को निशाना बनाया, मोदी के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा.

इसीलिए आम आदमी पार्टी ने नए साल के मौके पर भाजपा पर तंज कसा. आप पार्टी ने होर्डिंग लगाकार भाजपा कोटे से दिल्ली के सात भावी मुख्यमंत्रियों- मनोज तिवारी, परवेश वर्मा, हर्षवर्धन, गौतम गंभीर, विजय गोयल, विजेंद्र गुप्ता और हरदीप सिंह पुरी- को बधाई दी. दरअसल आप पार्टी दिल्ली में भाजपा के पास नेतृत्व के अभाव का मुद्दा उठा रही थी. सर्वे भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल लोगों की पहली पसंद हैं.

केजरीवाल की भी एक बड़ी परेशानी है. वह फ्रंटफुट पर आकर अच्छा खेल सकते हैं. वह आक्रामक खेल के लिए तो फिट हैं लेकिन बैकफुट पर जाकर रक्षात्मक खेल खेलते समय उनके हाथ पैर फूल जाते हैं. वह जब भी बहुत सोच-समझकर और फूंक-फूंककर कदम रखना शुरू करते हैं फंस जाते हैं क्योंकि इस खेल के लिए उन्हें सलाकारों की जरूरत पड़ती है. लेकिन उनका स्वभाव जैसा उससे सलाहकारों वाली राय मेल नहीं खाती और पीछे हटते ही हिट विकेट हो जाते हैं. पंजाब में उनके साथ वहीं हुआ. जो पार्टी हर सर्वे में जीतती दिख रही थी अचानक सारा खेल पलट गया. पार्टी ने प्रयोग के तौर पर पहले यह खबर प्लांट कराई कि केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री हो सकते हैं और उसके बाद पार्टी के दूसरे नेताओं से भाषणों के बीच भी एकाध बार यह बयान दिलाकर प्रयोग किया. कांग्रेस ने मौके को भांप लिया और अमरिंदर सिंह को खुलकर सामने कर दिया. बादलों से आजिज आई जो जनता आप पार्टी को आजमाना चाहती थी उसने कांग्रेस को गले लगा लिया.

केजरीवाल की एक कमजोरी है कि वह जल्द ही अतिआत्मविश्वास से भर जाते हैं. इस कदर भर जाते हैं कि एक के बाद एक चूक करने लगते हैं जैसा कि पहले 2014 के लोकसभा चुनावों में और फिर पंजाब के विधानसभा चुनावों में दिखा था. बहुत से राजनीतिक पंडितों ने उन्हें सलाह दी कि वह दिल्ली-एनसीआर और पंजाब पर फोकस करके पूरा जोर लगाएं और लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंचने की कोशिश करें लेकिन वह मोदी को चुनौती देने बनारस चले गए. सर्वे से आत्मविश्वास में भरे केजरीवाल ने कहना शुरू किया है कि अगर मैंने काम किया हो तो वोट दें नहीं तो मत दें. यह उनका एक और अति आत्मविश्वास है. यूपी में अखिलेश ने भी काम बोलता है का नारा दिया था. और काम अखिलेश ने भी किए थे. लेकिन बात नहीं बन सकी. इसलिए इस बात की भी आशंका है कि वह अपने इस गेम में उलझ जाएं क्योंकि बेशक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनका काम सराहनीय रहा है लेकिन इसका फायदा गरीब वर्ग या फिर निम्न मध्यम वर्ग को ही मिलता है. सरकारी अस्पतालों, मोहल्ला क्लिनिकों और सरकारी स्कूलों में मध्य मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग अमूमन नहीं जाता. दिल्ली में मध्य मध्यवर्ग की तादाद सबसे ज्यादा है. काम के नाम पर वोट मांगना उसे उतना नहीं लुभाता. भाजपा ने दिल्ली की करीब 1800 कच्ची कालोनियों को पक्का करने के जिस प्रस्ताव को मंजूरी दी है यदि उसपर वह जनता को समझा ले गई तो खेल बदल भी सकता है. चूंकि चुनाव में ज्यादा वक्त नहीं बचा इसलिए केजरीवाल नहीं चाहेंगे कि वोटों का कोई ध्रुवीकरण होने पाए इसलिए वह सीएए से लेकर जेएनयू कांड पर बहुत सधी प्रतिक्रिया दे रहे हैं. जेएनयू प्रकरण से उनकी दूरी पर उनकी पार्टी के पूर्व नेता और राजनीतिक समीक्षक आशुतोष ने उन्हें घेरा भी है जिसका इस्तेमाल कांग्रेस कर रही है. वह कांग्रेस ही है जो सीएए या फिर जेएनयू जैसे मुद्दों पर मोदी और भाजपा से लड़ती दिख रही है. यदि कांग्रेस अपने पिछले विधानसभा चुनावों के वोट में 4 से पांच प्रतिशत का इजाफा करने में भी कामयाब रहती है तो खेल दूसरा हो जाएगा. केजरीवाल का रक्षात्मक गेम और अतिआत्मविश्वास दोनों उनकी पार्टी को भारी पड़ जाएगा. खैर उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. जल्द ही दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.

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