इस दौलत पर कौन न मचल जाए ऐ ख़ुदा…

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जिस दिन भारत की सेना हैदराबाद के निजाम की सरहदों में दाखिल हो रही थी उस दिन निजाम पाकिस्तान के राजदूत के खाते में एक मोटी रकम ट्रांसफर करा रहे थे लेकिन इससे पहले कि पैसा पाकिस्तान के कब्जे में आता, खेल पलट गया. निजाम की दौलत की सात दशक लंबी लड़ाई एक दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है.

कहते हैं न अपने मुल्क से गद्दारी भारी पड़ जाती है. हैदराबाद के आखिरी निज़ाम उस्मान अली खान की एक चूक कहें या चाल या फिर निजाम के प्रधानमंत्री की मुल्क से गद्दारी की नीयत, निजाम के खजाने की बड़ी दौलत अंग्रेजों की बैंक के हाथ लग गई जो उन्होंने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ हमले में मदद के लिए भेजी थी. निजाम ने भारत के सामने घुटने टेक दिए फिर भारत के साथ अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपना खजाना भी देश के साथ खोला लेकिन अपने जीते जी उस दौलत को हासिल नहीं कर सके जो पाकिस्तान भेजी जा रही थी. उस्मान अली के बाद की पीढ़ी भी उस दौलत की लड़ाई लड़ते-लड़ते खप गई और अब तीसरी पीढ़ी कामयाबी के करीब पहुंचती दिखती है.

ऐसा लगता है कि दौलत आ जाएगी लेकिन वह दौलत शायद ही निजाम के वारिसों तक पहुंचे क्योंकि अंग्रेज सरकार से कानून जंग भले ही जीत ली गई हो अब निजाम के वारिसों के बीच एक दूसरी जंग शुरू हो चुकी है. निज़ाम के 120 वंशज- उनके पोते और उनकी संतानें- सात दशकों से लंदन के एक बैंक में रखे गए पैसे में से अपना हिस्सा पाने के लिए कानूनी चुनौती देने को तैयार हैं. और हो भी क्यों नहीं, दौलत है ही इतनी बड़ी- 35 मिलियन पाऊंड यानी लगभग 319 करोड़ रुपये.

पहले थोड़ा इस दौलत की लडाई का इतिहास समझ लेते हैं. 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिल गई. बहुत सी रियासतें आजाद रहना चाहती थीं. भारत सरकार ने थोड़ी सख्ती दिखाई तो रजवाड़ों ने भारत में विलय स्वीकारना शुरू कर दिया. लेकिन कुछ रियासतें ऐसी थीं जो मानने को तैयार न थीं. उनमें से एक थी हैदराबाद रिसायत. हैदराबाद रियासत के पास मजबूत फौज और अकूत दौलत थी इसके बूते वह भारत सरकार के आगे झुकने को तैयार न थी. गृह मंत्री सरदार पटेल समझ रहे थे कि अगर हैदाराबाद जैसी रियासत को थोड़ी भी छूट दी गई तो देश को आगे एक और बंटवारा देखना पड़ सकता है. जब बाद साम से न बनी तो उन्होंने दंड की नीति अपनाई.

सितंबर 1948 में सरदार पटेल ने मेजर जनरल जे.एन. चौधरी को हैदराबाद रियासत को किसी भी हालत में भारत के सामने आत्मसमर्पण कराने का लक्ष्य दिया. जनरल चौधरी एक बड़ी फौज लेकर निजाम पर चढ़े. निजाम की अपनी रज्जाकरों की सेना ने प्रतिरोध तो किया लेकिन भारत की सेना के दो तरफा हमले से घबरा गई और दो दिन की मोर्चाबंदी में ही रज्जकर घबरा गए. निजाम की फौज अपना मोर्चा छोड़कर पीछे हटने लगी. निजाम को अंदाजा ही न था कि पटेल इतना कड़ा रवैया भी अख्तियार कर सकते हैं. हार सामने देख निजाम ने पाकिस्तान की ओर मदद का हाथ फैलाया.

लंदन में निजाम के प्रतिनिधि और उनके विदेश मंत्री मोइन नवाज जंग ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त के खाते में, 1,007,940 पौंड और नौ शिलिंग (आज यह रकम 35 मिलियन पौंड हो चुकी है) नेशनल वेस्टमिंस्टर बैंक में उस समय जमा कराने की प्रक्रिया शुरू कराई थी जब भारतीय सेना हैदराबाद की ओर बढ़ रही थी. कागजी कार्रवाई पूरी होने में कुछ वक्त लग गया. बैंक ने पैसे को ट्रांसफर करने की प्रक्रिया 20 सितंबर, 1948 को शुरू की लेकिन इससे पहले तक निज़ाम की सेनाओं ने जनरल चौधरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था और भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर हो चुके थे. पाकिस्तान का दावा है कि निजाम ने यह पैसा पाकिस्तान से हथियारों की उस खेप के एवज में किया गया भुगतान था जो हथियार पाकिस्तान ने निजाम को मुहैया कराए थे. हालांकि निजाम ने इस बात से इंकार कर दिया था. 

अब चूंकि निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया था और तय था कि वह हिंदुस्तान के साथ ही रहेंगे तो, निजाम ने को अपने खाते में पैसे वापस ट्रांसफर करने को कहा. पाकिस्तान ने उस रकम पर यह कहते हुए अपना दावा ठोक दिया कि निज़ाम ने ये पैसे उसे उपहार के रूप में या फिर पाकिस्तान द्वारा हथियार की गई हथियारों की आपूर्ति के एवज में भुगतान स्वरूप दिया था. निजाम इंकार करते रहे और मामला अदालत में चला गया. बैंक ने विवाद के सुलझने तक वे पैसे अपने पास रख लिए. 1967 में निज़ाम की मृत्यु के बाद, भारत सरकार भी इस कानूनी लड़ाई में कूद पड़ी और उसने इस धन के साथ-साथ उन प्रसिद्ध रत्नों को हासिल करने के लिए भी अपना दावा ठोंका जो कभी निजाम की हुआ करती थी. 35 मिलियन पाउंड की रकम के साथ-साथ अब उन्हें जो मिलने वाला है वह 24 साल पहले की तुलना में बहुत अधिक होगा, जब निज़ाम के बेशकीमती आभूषण और रत्न नीलाम हुए थे.

ब्रिटेन की एक अदालत ने, भारत और निजाम के वंशजों के पक्ष में एक फैसला दिया और उस धन पर पाकिस्तान के दावे को खारिज कर दिया. कुछ रिपोर्टों से पता चलता है कि पैसा निजाम के दो पोतों- 86 वर्षीय प्रिंस मुकर्रम जाह और उनके छोटे भाई 80 वर्षीय मुफखम जाह, को जाएगा जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ दशकों पुरानी कानूनी लड़ाई में भारत सरकार के साथ हाथ मिलाया था. हालांकि अन्य वंशज भी उस धन के हकदार होने का दावा करते हैं. निजाम के पोते नजफ अली खान कहते हैं, “परिवार को लंबे समय से इस फैसले का इंतजार था और हमें उम्मीद है कि नेशनल वेस्टमिंस्टर बैंक में पड़े धन को बिना आगे किसी कानूनी लड़ाई में उलझाते हुए, उसके सभी हकदारों में वितरित किया जाएगा.”

विवाद यहीं शुरू होता है क्योंकि निजाम के वारिस होने का दावा करने वालों की कुल संख्या 400 के करीब पहुंच चुकी है. निजाम के 34 बच्च थे जिसमें निज़ाम की केवल एक बेटी ही जिंदा हैं. जबकि उनके 10 बेटे और बेटियों को कोई औलाद ही नहीं हुई थी. फिर भी निज़ाम के 104 पोते थे जिनमें से कुछ का निधन हो चुका है. उनकी अगली दो पीढ़ियों के लगभग 400 सदस्य या तो भारत में हैं या फिर विदेशों में जा बसे हैं.

कुछ अन्य दावेदारों का कहना है कि वे भी भारत सरकार और निज़ाम की संपत्ति के बीच पिछले साल हुए गोपनीय समझौते का एक पक्ष थे. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि निजाम की इस दौलता का बंटवारा किस प्रकार किया जाएगा. एक पोते नजफ अली खान कहते हैं, “कहीं नहीं लिखा है कि केवल दो पोते ही इस दौलत के हकदार हैं. अगर मामला ऐसा ही था, जैसा कि दावा किया जा रहा है, तो वे 2013 तक चुप क्यों बैठे थे? अगर बंटवारे का मसला सौहार्दपूर्ण तरीके से हल नहीं किया गया तो हम अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.”

इस विवाद में कुछ और पेंच भी हैं. मसलन, क्या धन को किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जा सकता है जो हैदराबाद और भारत का हो सकता है. ब्रिटेन की अदालत में भारत का प्रतिनिधित्व जाने-माने अधिवक्ता हरीश साल्वे ने किया था. साल्वे से जब इस विषय में पूछा गया तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी जिसे समझने की जरूरत है. साल्वे ने कहा था, “मैं कह नहीं सकता कि इतिहासकारों की दिलचस्पी उस बात में होगी जो पाकिस्तान सार्वजनिक रूप से कह चुका है कि यह रकम निजाम ने उनकी सेना या फिर राजाकरों को हथियारों की आपूर्ति के बदले दी थी.” यानी इसके एक मतलब यह भी निकलता है कि पैसा दो देशों के बीच का मामला हो चुका था जिसके हक की लड़ाई भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जीती है. निजाम ने तो भारत की दौलत पाकिस्तान को गलत तरीके से दे दी थी. यानी निजाम के 400 वारिसों के हाथ अगर कुछ आएगा भी तो शायद सरकार के रहमोकरम से ही! और सरकार इतनी रहमदिल होगी इसकी संभावना भी बहुत कम दिखती है.

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