जनकवि कभी विदा नहीं होते…

जनकवि, जो उलझकर रह गई है फाइलों के जाल में, गांव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में…भारत के ग्रामीण अंचलों की सारी वेदना समेटती ये पंक्तियां उस जनकवि की हैं जिसका ज्ञान स्कूली कम, अनुभव का ज्यादा है. स्वर्गीय रामनाथ सिंह, जो अदम गोंडवी के नाम से विख्यात हुए, उस धारा के संपोषक हैं जो व्यवस्था की चक्की में रोज पिसते इंसान को देखता है और उसकी सारी पीड़ा को समेटकर जब कलम उठाता है, तो उसकी रोशनाई से कविता नहीं क्रांति फूटती है. जिनकी कविताएं पूरी व्यवस्था की उदासीनता पर ऐसा कुठाराघात करती हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाए. अभिव्यक्ति की यह शक्ति गोंडवी को जनकवि बनाती है. धारा के विपरीत चलने और व्यवस्था से टकराने का माद्दा रखने वालों को ताकत देने वाले कवि हैं अदम गोंडवी. अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले जनलोकपाल आंदोलन और बाद में आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान में केजरीवाल की टीम ने भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के खून में उबाल लाने के लिए अदम की एक गजल का बेहतर इस्तेमाल किया- सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है. कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिए, अस्ल हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है. जिस शहर में मुंतजिम अंधे हों जल्वागाह के, उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है.हिंदुस्तानी आवाम की आत्मा को झकझोर कर उसे अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए तैयार करना हो या सिस्टम की खामियों को उजागर करने के लिए उस पर तीखा प्रहार करना हो, शायद ही ऐसा कोई नुक्कड़ नाटक रहा हो, जिसमें अदम की छाप न मिलती हो.

जनकवि, उत्तर प्रदेश की एक छोटी सी जगह गोंडा के रहने वाले अदम गोंडवी ने पढ़ाई भले ही प्राथमिक विद्यालय तक की ली लेकिन उनकी कलम की चोट ऐसी तगड़ी पड़ती है जिससे राजनीति और व्यवस्था दोनों तिलमिला उठते हैं. जनकवि अदम गोंडवी ने आजाद हिंदुस्तान में राजनीति में आई सड़ांध पर खुलकर हमला बोला. उनकी रचनाएं प्रकृति चित्रण या हुस्न और इश्क के बखान के लिए नहीं थीं, दरअसल वे खांटी सामाजिक- राजनीतिक चिंतक थे जिनकी रचनाओं में अगर कहीं कभी ऋंगार परंपरा के शब्द आए भी तो मन को शीतलता देने के लिए, सिस्टम पर आग बरसाने के लिए-जुल्फ, अंगड़ाई, तबस्सुम, चांद, आईना, गुलाब. भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब. पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी, इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब.अदम की रचनाओं पर अपनी टिप्पणी देते हुए जानकी शरण द्विवेदी लिखते हैं, “ कबीरदास की भांति अदम गोंडवी ने किसी को भी बख्शा नहीं है. उन्होंने लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण अंगों विधायिका और कार्यपालिका पर अपनी रचनाओं के माध्यम से जबरदस्त कुठाराघात किया है. उन्होंने ऐसी विस्फोटक व्यथा लिखी जो, शायरी को शायरी नहीं रहने देती, बल्कि धर्मयुद्ध की भाषा में बदल डालती है.”काजू भरे प्लेट में, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज आज विधायक निवास में. पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत, कितना असर है खादी के उजले लिबास में. जितने हरामखोर थे, कुर्बो-जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में.

जनकवि अदम का राजनीतिक चिंतक मन लोकतंत्र के मंदिर संसद की धूल-धूसरित होती गरिमा से आहत था. राजनीति में अपराधियों और भ्रष्टाचारियों की दिनों-दिन बढ़ती धमक से वह क्षुब्ध थे और उनके मन की वेदना समय-समय पर सामने आती रही.सदन की गरिमा बढ़ गई, छदामी लाल क्या आए, इमरजेंसी में बंदी थे, चीनी के घोटाले में. गाली-गलौच से लेकर जूतम-पैजार और प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेने से लेकर, सदन में नोट उछालने तक, अदम ने अपने जीवनकाल में भारत की संसद में सब कुछ होते देखा-सुना है और उस पर अपने उदगार व्यक्त किए हैं. चंद सिक्कों के एवज में ईमान बेचा जा रहा, ये हमारे देश की संसद है या नख्खास है. सांसदों के आचरण से लगातार तार-तार होती संसद की गरिमा पर उनकी चिंता इन पंक्तियों में झलक जाती है- 

जल रहा है देश ये बहला रही है कौम को, किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिए.देश का मुकद्दर बिगाडऩे में पॉलिटिक्स के साथ बराबर की साझीदार रही अफसरशाही की बखिया उधेड़ते हुए अदम लिखते हैं-महज तन्ख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के. मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के.अदम जनकवि थे. जनकवि जहां कहीं भी जनता के साथ हो रहे छलावे को देखता महसूस करता है, अपनी कलम से उसकी जोरदार मुखालफत करता है. इमरजेंसी के समय चले परिवार नियोजन के नाम पर नसबंदी के तमाशे और फिर उसके बाद आई जनता पार्टी के नेताओं की लंतरानी पर अदम ने बड़ी चुटकी ली है. संजय गांधी ने नसबंदी के नाम पर जो कहर बरपाया उसका विरोध करने वाली जनता सरकार परिवार नियोजन कार्यक्रम पर अपना स्टैंड तय नहीं कर पा रही थी, हां विभाग का नाम बदलकर परिवार कल्याण कर दिया गया.उन्होंने हम दो हमारे दो के सरकारी कार्यक्रम पर खूब चुटकी ली है- घर में गिनेंगे आप तो पंजे से कम नहीं, दफ्तर में टांगते हैं तिकोने निशान को.अपने जीवनकाल में सभी समकालीन राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं पर अदम ने जमकर अपनी कलम चलाई. चाहे परिवार नियोजन जैसे सरकारी कार्यक्रम हों या फिर जनलोकपाल आंदोलन, अदम के कटाक्ष से कोई भी नहीं बचा- अर्धनारीश्वर हुए जिस दिन से बाबा रामदेव, सोचता हूं योग है या योग का व्यापार है.मोहतरम अन्ना हजारे आप कर पाएंगे क्या, ये शहर शीशे का है और संगदिल सरकार है.अदम सही मायने में पॉलिटिकल कमेंटेटर थे. एक ऐसा जागरूक कमेंटेटर, जिसकी कलम की मार की जद से कोई नहीं बच पाया. पहले कांग्रेस और फिर उसके बाद कांग्रेस विरोधी आंदोलन से उपजी पार्टियों में भी हावी होती वंशवादी राजनीति को आड़े हाथों लेते उन्होंने लिखा- 


मुल्क जाए भाड़ में इससे इन्हें मतलब नहीं, एक ही ख्वाहिश है कि कुनबे में मुख्तारी रहे. वह लिखते हैं- दोस्तों! इस मुल्क में जम्हूरियत के नाम पर, कब तलक सिक्के चलेंगे एक ही परिवार के.अदम राजनीति और धर्म के घालमेल से बहुत व्यथित थे. मूलत: गोंडा के निवासी होने के कारण उन्होंने राम मंदिर आंदोलन को नजदीक से महसूस किया था. देश के बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल से बेचैन अदम ने राजनीति में धर्म की घुसपैठ पर लगातार करारा प्रहार किया है- ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी, फिर कहां से बीच में मस्जिद और मंदिर आ गए. जिसके चेहरे पर लिखी थी, जेल की ऊंची फसील, रामनामी ओढक़र संसद के अंदर आ गए.बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पूरा हिंदुस्तान सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा था. दंगों की राजनीति पर प्रहार करते हुए अदम ने लिखा-हिंदू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेडि़ए,अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडि़ए.गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले, ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडि़ए.छेडि़ए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ, दोस्त मेरे! मजहबी नग्मात को मत छेडि़ए.मजहबी नफरत के कारण हुए खून-खराबे का दर्द और मंदिर मस्जिद की लड़ाई में निर्दोषों के कत्ले-आम से व्यथित अदम ने आम जनता को इस राजनीतिक दुष्चक्र से आगाह करते हुए लिखा-खुद अपना घर नहीं, राम का घर हम बनाएंगे. इसे जादूगरी कहिए या कहिए लंतरानी है.आलोचक डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी कहते हैं, अदम दुनियावी मसलों के कवि हैं. उन्हें न तो आध्यात्मिकता रास आती है न अमूर्त साहित्यिक कलाकारी. वह मुफलिसी पर लिखते हैं, उसे जन्म देने वाले कारणों पर कलम चलाते हैं. क्रोध और प्रेम में रची-बसी उनकी कविता शक्ति संपन्नों के सामने निरंतर प्रश्न करती है-तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है.तुम्हारी मेज सोने की, तुम्हारा जाम सोने का, यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है.किसान के घर पैदा हुए अदम गोंडवी ने गांवों की दुर्दशा को बहुत करीब से भोगा है, भूख की बिलबिलाहट देखी है, व्यवस्था के कुचक्र में दिनों-दिन धंसता ग्राम्य परिवेश सहा है तो गरीबों को लहूलुहान करता शोषकों का आतंक झेला है. अपने आस-पास के माहौल ने उन्हें ऐसा बागी बना दिया, जिसने अपनी कलम से इंकलाब लाने की कोशिश की. वह कहते हैं- रहनुमा धृतराष्ट्र के पदचिह्न पर चलने लगे, आप चुप बैठे रहें ये कौम की रुस्वाई है.उनकी एक कविता चमारों की गली में सामंतवाद के शोषण, अत्याचार और अनाचार का मार्मिक चित्रण है.

इसके प्रकाशन के बाद सत्ता की गलियों में मची बौखलाहट की आंच अदम तक भी पहुंची थी. अदम गोंडवी बेपरवाह रहे, जहां भी चोट करने की जरूरत समझी बेझिझक किया. अदम गोंडवी की रचनाओं के संग्रह धरती की सतह पर के प्रकाशन पर अदम के भतीजे दिलीप गोंडवी अपना आभार व्यञ्चत करते लिखते हैं, उन्होंने समय से मुठभेड़ करते हुए राजनीतिक प्रपंचों पर तीखा प्रहार किया और मुर्दों में भी जान फूंकने की कोशिश की. जिनकी इच्छा मर रह थी, अदम की कविताओं ने उनमें भी जीने की इच्छा बलवती कर दी. राजनीति और व्यवस्था के सारे गुणा-भाग की बखिया उधेडऩे वाले रामनाथ सिंह अदम गोंडवी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाओं ने जो इंकलाबी बिगुल फूंका है, बहरी व्यवस्था को जगाने के लिए उसके कानों में पिघला शीशा उड़ेलने का हौसला देता रहेगा.जनता के पास एक ही चारा है बगावत, ये बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में.

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