कहां फंस गए ‘सौरव दादा’

सौरव गांगुली को बीसीसीआई की कमान सिर्फ 15 महीने के लिए मिली है और उनके पास राष्ट्रीय टीम, फर्स्ट क्लास टीम को मजबूत करने से लेकर क्रिकेट की अंदरूनी गुटबाजी को खत्म करने और आईसीसी के साथ चल रहे छत्तीस के आंकड़े को दुरुस्त करने जैसी बेहिसाब जिम्मेदारियां हैं. समय थोड़ा और काम बड़ा, पर दादा ने जीवन में कभी छोटा किया कहां है…

सौरव गांगुली- एक ऐसा नाम जो कम से कम तीन पीढ़ी के क्रिकेट प्रेमियों को याद है. एक ऐसे कप्तान जिन्होंने मुश्किल दौर में टीम की कप्तानी संभाली और उसे एक बेहद आक्रामक टीम में बदल दिया जो प्रतिद्वंद्वी टीम को उसके ही देश में उसकी ही पिच पर पछाड़ देने का माद्दा दिखाती थी. सौरव गांगुली ने जब वर्ष 2000 में कप्तानी संभाली थी. तब इस खेल पर मैच फिक्सिंग कांड के काले धब्बे लगे थे और प्रशंसकों का मोहभंग हो गया था. भारत में क्रिकेट अपनी विश्वसनीयता की लड़ाई लड़ रहा था. भारत को एक ऐसे शख्स की जरूरत थी जिसकी अखंडता फौलादी हो और वह प्रशंसकों को यह भरोसा दिला सके कि सभी मैच फिक्स नहीं थे. सौरव के साथ 2001 की ऑस्ट्रेलिया सीरीज़ ने भारतीय प्रशंसकों में उस उम्मीद को फिर से जगा दिया. उन्हीं सौरव गांगुली को एक बार फिर से भारतीय टीम की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह की समस्याओं से उबारने की जिम्मेदारी दी गई है. भारतीय टीम को संकट से उबारने के लिए इस बार वह हाथ में बल्ला लिए क्रीज पर तो नहीं उतरेंगे लेकिन मैदान से बाहर बहुत सी चुनौतियों से निपटेंगे, भारतीय क्रिकेट टीम की शीर्ष संस्था बीसीसीआई के अध्यक्ष की हैसियत से.

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उम्मीद है कि सौरव क्रिकेट की अपनी इस दूसरी पारी में देश की शीर्ष क्रिकेट संस्था के प्रशासक के रूप में वैसा ही जादू करेंगे. क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था आईसीसी में भारत पहले जैसा मजबूत नहीं है, देश की प्रथम श्रेणी क्रिकेट संरचना में एक सुधार की आवश्यकता है; बीसीसीआई (भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड) सैकड़ों लंबित अदालती मामलों में उलझ गया है; और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय प्रशंसक टेस्ट क्रिकेट से दूर हो गए हैं. आज लोगों की जुबान पर आईपीएल लीग का स्वाद चढ़ चुका है, लेकिन जब तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को कैलेंडर में जगह नहीं मिलती और यह प्रशंसकों को आकर्षित नहीं करता, भारत को एक अग्रणी क्रिकेट राष्ट्र के रूप में खड़ा होना ब़ड़ी चुनौती होगी.

भारतीय टेस्ट और एकदिवसीय टीम मैदान पर तो अच्छा प्रदर्शन कर रही है लेकिन ड्रेसिंग रूप में इतना कुछ हो रहा है जो न सिर्फ टीम की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहा है बल्कि टीम के अंदर भयंकर गुटबाजी को भी जन्म दे रहा है. भारतीय टीम जितनी खबरें अपने खेल से नहीं बना रही है उससे ज्यादा मसालेदार खबरें खेल से इतर निकलकर आ रही हैं और शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि लोगों का ध्यान खेल से ज्यादा क्रिकेट गॉसिप की ओर जा रहा है. और इस नूरा-कुश्ती को तड़का तब और लग जाता है जब इसमें खिलाड़ियों की पत्नियों और फिल्मी हस्तियों का नाम भी आ जाता है.

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भारत के लिए 46 टेस्ट मैच खेलने वाले 82 वर्षीय पूर्व दिग्गज विकेटकीपर बल्लेबाज़ फ़ारुख़ इंजीनियर ने दावा किया था कि उन्होंने चयन समिति के पांच सदस्यों में से एक को क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली की पत्नी अनुष्का शर्मा को चाय पकड़ाते देखा था. चाय की बात पर अनुष्का भी उबल गईं. अनुष्का ने ट्वीट लिखा, “अगर आपको चयनकर्ताओं और उनकी योग्यता पर ही कोई टिप्पणी करनी है तो शौक से करें, पर अपने फ़र्ज़ी दावों में दम भरने के लिए और सनसनी पैदा करने के लिए मेरे नाम का इस्तेमाल ना करें.” इंजीनियर के बाद युवराज सिंह ने भी चयन समिति की योग्यता पर सवाल उठा दिए जिसपर सोशल मीडिया में बहुत प्रतिक्रिया हुई. ज्यादातर लोग युवराज की बात से सहमत दिखे. ऐसा माहौल बना जैसे अनाड़ियों के हाथ में भारत की क्रिकेट टीम को चुनने का जिम्मा है और उनकी कप्तान कोहली और कोच रवि शास्त्री के आगे घिग्घी बंधी रहती है. कहने को एक चयन समिति है लेकिन वह एक स्टैंप भर है. क्या सच, क्या झूठ पक्का कहना मुश्किल है. पर आइए थोड़ा इस चयन समिति के बारे में भी जान लेते हैं.

मुख्य चयनकर्ता एम.एस. के प्रसाद के अलावा चयन समिति में गगन खोड़ा, जतिन परांजपे, सरनदीप सिंह और देवांग गांधी हैं. एम एस के प्रसाद के पास छह टेस्ट और 17 वनडे, गगन खोड़ा के पास दो वनडे, सरनदीप सिंह के पास तीन टेस्ट और पांच वनडे, जतिन परांजपे के पास चार वनडे और देवांग गांधी के पास चार टेस्ट और तीन वनडे मैच खेलने का अनुभव है. इसे जोड़ लिया जाए तो पूरी चयन समिति का संयुक्त अनुभव कुल 13 टेस्ट मैच और 31 वनडे मैच का है. यानी शास्त्री और कोहली दोनों ही अनुभव में पूरी चयन समिति पर कई गुना भारी पड़ते हैं.

लेकिन क्या जो कम मैच खेला हो वो अच्छी टीम नहीं चुन सकता, इस पर राय अलग-अलग हो सकती है, फिर भी जानकारों का साफ़ कहना है कि अगर चयनकर्ता अनुभव के मामले में कप्तान और कोच के सामने बहुत ज्यादा बौना हो तो वह नैतिक रूप से उसका सामना नहीं कर सकता. हाल में ख़बर आई थी कि सौरव गांगुली एम एस के प्रसाद की अगुवाई वाली चयन समिति में तब्दीली कर सकते हैं. ऐसा अभी तक हुआ नहीं है लेकिन यह कभी भी हो सकता है. यह तो करीब-करीब साफ़ दिख रहा है कि ये चयन समिति अपना कार्यकाल पूरा नहीं करेगी. पुराने संविधान के हिसाब से समिति का कार्यकाल चार साल है, जबकि संशोधित संविधान के मुताबिक ये पांच साल हो सकता है. इस पर भी गांगुली को फैसला लेना है, ऐसा फैसला जो संतुलित भी लगे और असरदार भी.

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इसके अलावा गांगुली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बीसीसीआई की गिरती हनक को भी संभालना है. वर्तमान में शशांक मनोहर आईसीसी के साथ अध्यक्ष हैं बीसीसीआई के साथ आईसीसी के संबंध अब तक के सबसे खराब दौर में दिखते हैं. मनोहर ने संयोगवश, दो बार बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में कार्य किया है, और लंबे समय से प्रशासक हैं. विश्व क्रिकेट बोर्डों के लिए एक नए राजस्व-वितरण मॉडल पर आईसीसी में 2017 में मिली शर्मनाक हार (1-13 वोट) इस बात का पर्याप्त प्रमाण था कि बीसीसीआई का कद अब आईसीसी में कम हो गया है. अब इसके पास आईसीसी में अपनी शर्तें निर्धारित करने के लिए संख्या नहीं है और गांगुली को वह खोई हुई हैसियत फिर से प्राप्त करना चाहेंगे. आईसीसी बोर्ड के सदस्यों के साथ बातचीत में यह अंदाजा लगता है कि अगर सभी नहीं, तो भी अधिकतर मनोहर का ही समर्थन करते हैं. खुले टकराव की नीति काम नहीं कर सकती, हालांकि बोर्ड कुछ सदस्य जैसे बीसीसीआई और आईसीसी के पूर्व प्रमुख एन. श्रीनिवासन सख्त रवैये की वकालत करते रहे हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि सौरव इस लगातार हार की ओर बढ़ रहे खेल को किस तरह खेलते हैं. हालांकि आईसीसी के राजस्व में सबसे बड़ा हिस्सा बीसीसीआई का होता है, यह हमेशा एक अलग लाइन लेने और आईसीसी के अन्य सदस्यों के विचारों की अवहेलना करके उन्हें अपने खिलाफ नहीं कर सकता है. सौरव को बीसीसीआई में कई लोगों के लिए कूटनीतिक बनना होगा और बहुत से लोगों को बोर्ड के जल्द से जल्द उद्धार की उम्मीद होगी और ऐसी अवास्तविक उम्मीदों पर खरा उतरना हमेशा मुश्किल होगा. सचिन तेंदुलकर, अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ और कई अन्य सुपरस्टार्स को टीम में मैनेज कर चुके सौरव को व्यक्तियों को मैनेज करने के एक दो गुर तो पता हैं, लेकिन मनोहर और आईसीसी से निपटने के लिए उन्हें बड़ी मशक्कत करनी होगी. बीसीसीआई और आईसीसी को साझेदार होने की आवश्यकता है न कि विरोधी, और यही वह संदेश है जो सौरव विश्व क्रिकेट की गर्वनिंग बॉडी तक पहुंचाकर उसे कुछ रियायतें प्राप्त करना चाहते हैं. ग्लोबल टूर्नामेंटों के बहिष्कार जैसे कट्टरपंथी कदम एकदम मूर्खतापूर्ण होंगे और सौरव ब्लैकमेल करने की कोशिश से बेहतर चीजें करना जानते हैं.

गांगुली के लिए करने को भारत के भीतर भी बहुत ज्यादा काम पड़ा है. अगर बोर्ड के खिलाफ फैसले आते हैं तो सहारा और कोच्चि आईपीएल टीम के खिलाफ मध्यस्थता के मामले में बीसीसीआई को 1,500 करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है. भारत भर की अदालतों में सैकड़ों अन्य मामले दर्ज हैं. बीसीसीआई का कानूनी खर्च पिछले पांच या छह वर्षों में 100 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है, और बीसीसीआई के सत्ता के गलियारों में इस पर चर्चा में रूचि भी नहीं दिखाई जाती. यह एक अजीब विरोधाभास है कि जब बोर्ड वकीलों और कानूनी फीस पर करोड़ों खर्च करता है और इसके खजाने में करोड़ों रुपये पड़े हैं, तो यह क्रिकेट प्रशंसकों को स्वच्छ शौचालय जैसी आधारभूत सुविधाओं भी प्रदान नहीं कर सकता है.

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गांगुली देश के फर्स्ट क्लास क्रिकेट में सुधार की अपनी प्राथमिकता पहले ही जता चुके हैं. वह प्रथम श्रेणी क्रिकेट को क्रिकेट की नर्सरी मानते हैं जहां से राष्ट्रीय प्रतिभाओं को उभरने का मौका मिलता है. द्रविड़ ने राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी (एनसीए) की बागडोर संभालने के साथ इस दिशा में शुरुआत पहले ही कर दी है. प्रथम श्रेणी सीनियर और जूनियर दोनों स्तर की चयन समितियों में सुधार करना होगा और उनमें सबसे योग्य लोग लेकर आने होंगे. जानेमाने क्रिकेटर कमेंट्री और अन्य अनुबंधों से करोड़ों में कमाते हैं, और उन्हें चयनकर्ताओं के रूप में बोर्ड में लेकर आने के लिए इतना पारिश्रमिक तो देना ही होगा कि वे बड़े विज्ञापन और कमेंटरी जैसी चीजें छोड़ने की सोच सकें.

जब सौरव ने राष्ट्रीय टीम का नेतृत्व किया, तब बीसीसीआई के पास पैसा बेशक कम था लेकिन इसकी नींव यकीनन मजबूत थी. 1993 में इंग्लैंड के खिलाफ ईडन गार्डन्स में एक मैच में, पांचवें दिन 70,000 से अधिक लोग मैदान पर थे जिसमें भारत को जीत के लिए सिर्फ 30 रनों की आवश्यकता थी. जब सौरव ने मार्च 2001 में अपने घरेलू मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एक चमत्कारिक जीत में टीम का नेतृत्व किया, तो ईडन में पांचवें दिन स्टैंड में 1,00,000 लोग थे. आज भारत में टेस्ट मैच हजार से अधिक दर्शक नहीं मिलते. यदि भारत को विश्व क्रिकेट की मूल नस वाली अपनी छवि को बनाए रखना है, तो इस आंकड़े को वास्तव में जल्द ही बदलना होगा. विश्व टेस्ट चैंपियनशिप शुरू होने वाली है. उन्हें इस दिशा में जल्द ही कुछ चमत्कारिक काम करना होगा.

महिलाओं का खेल एक अन्य क्षेत्र है जिस पर ध्यान देकर सौरव बीसीसीआई अध्यक्ष के अपने 10 महीने के कार्यकाल में बहुत कुछ कर सकते हैं. उनके सीएबी (क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल) अध्यक्ष रहने के दौरान बंगाल, भारतीय महिला क्रिकेट के पावरहाउस के रूप में उभरा. सीनियर नेशनल में जीत और पिर अंडर-23 और अंडर-19 में भी जीत हासिल की. दो वर्षों में दो विश्व कप सामने आने के बाद, बीसीसीआई अध्यक्ष को महिलाओं के खेल के लिए एक रोडमैप तैयार करना होगा. मिताली राज, झूलन गोस्वामी, हरमनप्रीत कौर, स्मृति मंधाना, दीप्ति शर्मा, शिखा पांडे और पूनम यादव के अलावा, भारत के महिला क्रिकेट में कोई भी दमदार नाम नहीं उभर सका है. यह देखना भी दिलचस्प होगा कि सौरव 2020 में महिला आईपीएल की शुरुआत कराने के लिए कुछ प्रयास करते हैं या नहीं. हम उस स्थिति को आगे भी नहीं देखना चाहेंगे जहां एक प्रतिभाशाली महिला शेफाली वर्मा को युवा होने के दौरान प्रतिस्पर्धी स्तर पर खेल खेलने के लिए एक लड़के के रूप में खुद को दर्शाना पड़ता हो.

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पुरुषों के खेल के विपरीत, जहां भारत इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ शीर्ष स्थान पर रहता है, महिलाओं के खेल में ऑस्ट्रेलिया अभी भी भारत से बहुत आगे है. ऐसा इसलिए है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया में घरेलू खेल का आयोजन बेहतर है. वहां प्रतिभाओं को खोज निकालने का काम अधिक गहराई से होता है. लड़कियों को खेल को एक करियर के रूप में अपनाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है इसलिए प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की कोई कमी नहीं. जबकि भारत में पिछले तीन वर्षों में चीजें बदल गई हैं, फिर भी महिलाओं के क्रिकेट को मुख्यधारा का खेल बनाने और उन्हें पुरुषों के क्रिकेट के बराबर सम्मान देने के लिए अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. सौरव के साथ क्रिकेट की इस शीर्ष संस्था में उनका समर्थन करने के लिए भारत की पूर्व कप्तान शांता रंगास्वामी मौजूद हैं, लेकिन यह देखना होगा कि क्या उनकी उपस्थिति सिर्फ नुमाइशी रहती है या फिर उनकी आवाज को भी तरजीह मिलती है.

बीसीसीआई के अध्यक्ष के रूप में, सौरव के सामने निश्चित रूप से बहुत सी चुनौतियां हैं, समय बस 10 महीने. हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि वह इन 10 महीनों में भारत के क्रिकेट में क्या कुछ बदल पाते हैं.

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