ये नए मिजाज का फैशन है

फैशन, कपड़े पहनने की सोच में एक विद्रोह ने एक नए सौंदर्यबोध को जन्म दिया है जो कहता है कि हम दुनिया में सिर्फ सुंदर दिखने या सुंदर कपड़े पहनने के लिए नहीं हैं… असुंदर में भी सौंदर्य हो सकता है.

मुकेश अंबानी की बेटी ईशा अंबानी और आनंद पीरामल की इटली में सगाई की पार्टी से वापस लौटीं श्रीदेवी और बोनी कपूर की बेटी जाह्न्वी कपूर एयरपोर्ट से बाहर आईं तो उन्होंने सफेद टॉप, डेनिम, गोगल्स पहन रखे थे और बेहद खूबसूरत लग रही थीं. पर इसमें नया क्या था. सेलेब्रिटी परिवार की बेटी और धड़क फिल्म की हेरोईन के लिए बन-ठन के चलना तो आम बात है. और दुनिया के फैशन के प्रमुख केंद्रों में से एक इटली के शहर से भारत के सबसे रईस परिवार के फैमिली फंक्शन में शामिल होकर कोई सेलेब लौटेगा तो जाहिर है वह आकर्षक दिखेगा. यह सब मैं क्यों बता रहा हूं. आखिर कहना क्या चाहता हूं. दरअसल सारी कहानी जाह्न्वी के जूतों पर टिकी है. जूतों पर कहानी? जी हां, जाह्न्वी ने उस दिन जो जूते पहन रखे थे अगर वे जूते आप अपनी किसी प्रिय महिला को दें तो हो सकता है वह आपको वही जूता फेंककर मार दे. ऐसा क्यों? बेढ़ब से जूते जिसे देखने के बाद यह तय करना मुश्किल हो कि यह आदमी का है या औरत का. साइज कुछ ऐसे बनाया गया हो जिसे आप भी पहन लें और आपकी महिला मित्र भी. जिस पर भद्दे से फीते हों, अजीब से स्ट्रैप और चमकते पत्थर. पहली प्रतिक्रिया क्या होगी? कहां से उठा लाए इसे? और दरअसल हुआ भी कुछ ऐसा ही था.

जाह्न्वी की फोटो नेट पर और सारा फोकस उनके जूतों पर चला गया. कोई कहने लगा कि बोनी कपूर के जूते हैं जिसे थोड़ा बहुत मोडिफाई कराके पहन लिया है, कोई कहने लगा कि जूते शादी में कहीं गुम हो गए तो जाह्न्वी को सामने जो जूता दिखा वही उठा लाईं. जितने मुंह उतनी बात लेकिन इस बात में तब तड़का कहें या फिर धमाका, तब हुआ जब किसी ने उन जूतों की कीमत बता दी. जिन जूतों को आप अपने किसी प्रिय व्यक्ति को इस डर से गिफ्ट करने से हिचकें कि कहीं ये जूते ही न बरस पड़ें वे जूते गूची के थे और कीमत थी करीब सवा लाख. सवा लाख के जूते, और वह भी ऐसे बेढब, बेडौल, बदसूरत जूते, क्या मजाक है! जी यह मजाक लगता है पर है सोलह आने सच. न्यूजऑर्ब360 पर सोलह आने सच बात होती है. और जो रियेक्शन आपका है वही रियेक्शन सोशल मीडिया पर भी था. जाह्न्वी कपूर ने बेढब, बेडौल, बदसूरत जूते (ऐसा आप सोच सकते हैं,) जिन्हें डैड स्नीकर्स कहा जाता है, के जरिए भारत में उस UGLY FASHION (अग्ली फैशन) को चर्चा में ला दिया जो पश्चिम में तो कई वर्षों से छाया हुआ और भारत में भी अपनी पहचान बनाने को संघर्ष कर रहा है. पर जाह्न्वी ने उसे रातों-रात चर्चा में ला दिया. क्या है ये अग्ली या बेढब या बदसूरत या बेडौल या बेतुका या विद्रोही फैशन? और अगर बदसूरत है तो फिर फैशन कैसा?

महान दार्शनिक सुकरात (जिनके लिए कहा जाता था कि वह काफी कुरूप थे) ने कहा है कि न कुछ सुंदर है न कुछ असुंदर. यह तो आपके देखने की शक्ति पर निर्भर करता है कि आपकी आंखों ने किसे देखा. कितनी बड़ी बात कही है. वाकई आपने भी यदि वही देखा जो दुनिया को साफ दिख रहा है तो आपमें अलग क्या है, आप भी एक सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति हैं. जो उसमें से सौंदर्य देख ले वह हुआ पारखी. यही इस अग्ली फैशन, जिसके लिए हम बेतुका फैशन शब्द का इस्तेमाल करेंगे, के पीछे की मूल सोच है.  

अग्ली (बेतुका) फैशन क्या बला है?

मशहूर अंतरराष्ट्रीय फैशन डिजाइनर ड्रिस वान नोटेन ने एक शो के दौरान कहा था, “सुंदरता जैसी उबाऊ चीज और कोई नहीं है. मैं उन चीजों से अधिक प्रेरित हूं जो मुझे पसंद नहीं हैं….”

अग्ली दिलेरों की नई दुनिया है जहां एक व्यक्ति बहुत ढीले-ढाले शर्ट, बैगी पैंट और डैड स्नीकर्स में अपने तरीके से अपना फैशन तय कर सकता है. बेड़ौल-भद्दे कपड़े, चंकी हील्स और पफर्स, फैशन की अगली सीमाओं के मार्गदर्शक स्तंभ हैं. डैड स्नीकर्स के साथ-साथ भद्दी दिखते फ्लोरल ड्रेसेज, काम के दौरान पहनी जाने वाली भद्दी बनियान, बदसूरत स्वेटर, बदसूरत जैकेट और कमर पर बहुत ऊपर तक चढ़ी मां वाली जीन्स इसकी पहचान हैं. जैसा कि दत्ता कहते हैं, यह एक ऐसा ट्रेंड है जो दुनिया को उत्तेजित करने या चिढ़ाने के लिए डिज़ाइन की गई है.

अग्ली फैशन की कल्पना करने वालों ने इसे उन लोगों के प्रति एक तरह का समर्थन जताने के लिए इसकी शुरुआत की जिन्हें बदसूरत और बेडौल मानकर उनका उपहास किया जाता रहा है. यह फैशन, वास्तव में फैशन की दुनिया का नैरेटिव सेट करने वाले फैशन एडिटर्स द्वारा गढ़ी गए सुंदरता की उस व्यापक अवधारणा की जड़ों पर हमला करता है, जो बस ग्लैमरस होने को ही फैशन मानते हैं. यह सोचने का उनका संकुचित दृष्टिकोण है जो व्यक्ति के शरीर की आकृति, उसकी त्वचा के रंग, उसकी लंबाई-चौड़ाई जैसी पूरी तरह से भौतिक चीजों के दायरे में सिमट जाता है. बेतुका फैशन इसके विपरीत एक धारा की परिकल्पना करता है. इस नए सौंदर्यशास्त्र की बड़ी खूबी है कि यह फैशन के सभी प्रचलित ढकोसलों को धता बताता है. खासकर इंस्टाग्राम और यूट्यूब के युग में, अग्ली ही पूर्णता की भीड़ के बीच किसी को अलग रूप में व्यक्त करने का एकमात्र जरिया लगता है.

बेतुका फैशन कब शुरू हुआ, कैसे शुरू हुआ और किसने इसे शुरू किया इसे ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है लेकिन 2012 में बेढ़ब हील वाले(लकड़ी के और आवाज करते) जूतों से प्रयोग शुरू हुआ. 2013 के आसपास एक और फैशन ट्रेंड में आने लगा- “नॉर्म-कोर”. भविष्य के ट्रेंड का अनुमान लगाने वाले ग्रुप के-होल द्वारा शुरू किया गया यह ट्रेंड “नॉर्मल” और “हार्डकोर” के संयोजन से तैयार किया गया था. इसके पीछे सोच एक ऐसे फैशन को आकार देने की थी जो छरहरे से लेकर थुलथुले, नाटे से लेकर लंबे और हिप्पी से लेकर बाल्ड तक, सभी को अपने में समाहित कर ले. दुनिया के वे डिजायनर जिन्हें नामचीन डिजाइनरों-के दबदबे वाले फैशन ट्रेड में जगह नहीं मिलती थी उन्होंने इसे बढ़ाना शुरू किया. यह किसी के लिए एकदम अलहदा दिखने का एक माध्यम बन गया. बस फिर क्या था, इसने डिजाइनरों को आकांक्षाओं से परे जाने के लिए प्रेरित किया. जैसे जूट की बोरी से सिले दिखते कपड़े जो महंगे तो इतने हैं कि उनकी कीमत में कपड़ों की एक पूरी आलमारी भर जाए.

भारत में कहां तक पहुंचा है यह विद्रोही अग्ली फैशन

भारत में फैशन शो में दुल्हन के लिबास तैयार करने पर ही सबसे ज्यादा जोर रहा है क्योंकि भारत में शादियां एक उत्सव जैसी होती हैं. भारतीय डिजायनरों द्वारा दुल्हन की लिबास को जरूरत से ज्यादा सजावटी बनाने की प्रतिक्रिया के रूप में भी शायद यह विद्रोही फैशन भारत में उभरा. हालांकि भारत में सौंदर्य मानदंडों को बॉलीवुड निर्धारित करता है और उसने इसे अपनाने में थोड़ी झिझक दिखाई और इसके ट्रेंड को वह गति नहीं मिल सकी. लेकिन रणबीर सिंह जैसे स्टार्स ने साहस दिखाना शुरू किया और वे ऐसे कपड़ों में आने लगे जो पारंपरिक से इतने अलग थे कि लोग उन्हें ट्रोल करने लगे. 

भारतीय फैशन उद्योग के विद्रोही, रूढ़िवादियों के खिलाफ खड़े होने लगे हैं. भारत में, अगली फैशन ट्रेंड विशेष रूप से सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के साथ अपने जुड़ाव के कारण और खास हो जाता है जो सौंदर्य और हाई फैशन से परे है. चमार स्टूडियो के सुधीर राजभर ने एक ऐसे शब्द विशेष की गरिमा बहाल करने के लिए फैशन को हथियार बनाया है जो भारत की जातिगत राजनीति के कारण अपमानजनक शब्द का पर्याय बन गया है. यह ब्रांड उपयोग में आने वाली चीजें, टिकाऊ बैग, आड़े-तिरछे टांके वाले बेल्ट जो आमतौर पर निचली जातियों में गिने जाने वाले भारत के मोचियों की एक खास पहचान है, और धारावी के किसी छोटे से घर में बने चांदी के स्टील बटन प्रदान करता है. 32 साल के राजभर ने अपने पहले कलेक्शन को ‘बॉम्बे ब्लैक’ कहा और रबर के रिसायक्लड टायर से बटुए, बस्ते और बोरे तैयार करके 600 से 6,000 रुपये के बीच उसकी खुदरा बिक्री की. इस वर्ष, उन्होंने प्रोजेक्ट ब्लू कॉलर लॉन्च किया जो प्रतीकात्मक रूप में भीम राव अंबेडकर जुड़ा है. अंबेडकर ने दलित सशक्तीकरण के प्रतीक रंग के रूप में ‘नीला’ को चुना था. इस प्रोजेक्ट को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर 1 मई लॉन्च किया गया.

अपनी आगामी परियोजना के लिए, राजभर ने हाशिए पर खड़ी जाति को एक लक्जरी टैग देने के लिए 75 अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय डिजाइनरों के साथ एक समझौता किया है. इस प्रोजेक्ट को महंगे फैशन की रिटेल चेन एन्सेम्बल की मदद मिल रही है. एन्सेंबल की कार्यकारी निदेशक टीना तहिलियानी पारीख कहती हैं, “चमार प्रोजेक्ट के लिए हमारे समर्थन का निर्णय सहज और स्वैच्छिक था. यह प्रोजेक्ट उस समुदाय की कलात्मकता और प्रतिभा को उभारकर लाता है. हमने इसे एक मंच दिया और इस बात पर हमें गर्व है.” फराह सिद्दीकी द्वारा क्यूरेट किए गए चमार संग्रह के बैगों को एन्सेंबल, पॉप-अप और सबसे महंगे स्टोरों पर बेचा जाएगा.

उभरते डिजायनर अनाम शर्मा, ने 2017 में लक्मे फैशन विंटर विंटर-फेस्टिव के अपने शो में मॉडलों को सादगीपूर्ण वस्त्रों में उतारा. मॉड्ल्स ने जूतों और सिर पर लंबे हैट पहनकर परेड किया जिन पर लिखा था- “बिगट्री (कट्टरता), हंगर (भूख), पॉवर्टी (गरीबी), होमोफोबिया (समलैंगिकों से भय)”. उनका पहला कलेक्शन, कोलकाता के रेडलाइट एरिया “सोनागाछी की महिला योद्धाओं” से प्रेरित है. वह इसे निरंतर संघर्ष से मजबूत हुई उन यौनकर्मियों को श्रद्धांजलि बताते हैं जिनसे उनका परिचय पहली बार तब हुआ जब उन्होंने सोनागाछी जाने के लिए टैक्सी ली थी. उन्होंने वहां जो कुछ देखा, उसने उनके दिमाग को जकड़ लिया. उन्हें वहां का दृश्य लगभग किसी युद्ध क्षेत्र सरीखा लगा जहां सभी आकार, साइज, नस्ल, उम्र और लिंग की महिलाएं कतारों में खड़ी थीं अपने शरीर का सौदा करने के लिए.  लीक से हटकर कुछ अपरंपरागत करने की कोशिश इस फैशन को कर्मशियल मार्केट बिल्कुल स्वीकार नहीं कर रहा है. जब बात फैशन की बात आती है, हम अभी भी एक रूढ़िवादी बाजार ही हैं. फैशन के इस दौर में जानबूझकर कुरूप होना, फैशनपरस्त साहसी होना बन गया है. हालांकि 2018, बहुत से कलेक्शंस के लिए पिछले कुछ वर्षों में सबसे ज्यादा झटके वाला साल रहा है फिर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगली फैशन ने निश्चित रूप से एक बड़ा उभार देखा है. फैशन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शायद ऐसा #MeToo आंदोलन की एक व्यापक प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है. प्रसिद्ध कवि चार्ल्स बुकोवस्की अपनी किताब टेल्स ऑफ़ ऑर्डिनरी मैडनेस में लिखते हैं, “सुंदरता कुछ भी नहीं है, सौंदर्य टिकने वाला नहीं. आप यह नहीं जानते हैं कि आप बदसूरत होकर कितने भाग्यशाली हैं क्योंकि अगर लोग आपको पसंद करते हैं, तो आपको बेहतर पता है कि वह आपकी खूबसूरती के कारण नहीं है.”

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