कांग्रेस…यूंही साथ चलते-चलते…

कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना का गठबंधन भानुमति के कुनबे सा लगता है जिसकी बुनावट ही उसकी कमजोरी है. इस कुनबे को बांधे रखने वाली बस एक ही शक्ति है-सत्ता सुख और तीनों दल अलग-अलग हित साधने आए हैं.

चुनाव परिणाम के एक महीने बाद महाराष्ट्र को एक सरकार मिली तो उसकी मियाद 72 घंटे भी न रही. एक बड़े राजनीतिक ड्रामे के बाद आखिरकार 28 नवंबर को, उद्धव ठाकरे अपने परिवार से महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने वाले पहले व्यक्ति हो गए. जिनके साथ 30 साल की दोस्ती थी उनसे मुख्यमंत्री की कुर्सी की अदला-बदली के लिए नाता तोड़ लिया और जिनसे तीस साल तक छत्तीस का आंकड़ा रहा वे आंखों के तारे हो गए. राजनीति विचारधारा की कब्र पर खिलते अवसर को गुलाबी फूलों का नाम है. हिंदू हृदय सम्राट के नाम से जाने जाते रहे बालासाहेब ठाकरे के सबसे छोटे पुत्र उद्धव ठाकने ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्ट्र विकास अगाड़ी (एमवीए) बनाया और पूरे पांच साल तक मुख्यमंत्री रहने के सपने के साथ आए तो हैं लेकिन मियाद कितनी होगी यह तो राम ही जानें. ऐसा इसलिए क्योंकि यह गठबंधन उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को मिलाने वाला प्रयास है. ऐसा प्रयास भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ किया था लेकिन उसका हश्र क्या हुआ सब जानते हैं.

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ऐसा नहीं है कि शिवसेना ने कांग्रेस की गलबहियां पहली बार की हैं. 19 जून 1966 को राजनीतिक कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने दादर के शिवाजी पार्क में एक रैली करके मराठी मानुष की पार्टी शिवसेना की शुरुआत की. पार्टी का मकसद ही था देश के अन्य राज्यों से आकर मुंबई में बसे लोगों को भगाओ. शुरुआत दक्षिण भारतीयों से हुई बाद में सभी ‘बाहरी लोग’ उनके निशाने पर आ गए. 1971 में शिवसेना ने लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के विरोधी कांग्रेस (ओ) गुट के साथ चुनाव लड़ा लेकिन शिवसेना के तीनों उम्मीदवार हार गए. पर उसके बाद ठाकरे ने आपातकाल का समर्थन कर दिया. 1977 के लोकसभा और 1980 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वह इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आई) के साथ हो लिए. 1984 में पहली बार उन्हें भाजपा के रूप में साझीदार मिला जिसके साथ गठबंधन किया जो कई मतभेदों के बावजूद 2019 तक चलता रहा. 1984 में कांग्रेस की लहर में शिवसेना के दो उम्मीदवार भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ थे लेकिन दोनों हार गए. उसके बाद से सेना का हिंदुत्व की ओर झुकाव शुरू हुआ और 1992-1993 के मुंबई दंगों के दौरान अपने भाषणों के बाद बाल ठाकरे हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने लगे. दंगों के दौरान बाल ठाकरे और शिवसैनिकों की भूमिका पर उंगली उठी थी और श्रीकृष्ण कमेटी ने जांच के दौरान शिवसैनिकों को मुसलमानों के प्रति क्रूरता का दोषी भी पाया था. यही वह बिंदु है जिसे लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि यह बेमेल गठबंधन ज्यादा नहीं चलेगा क्योंकि ठाकरे को शिवसेना के हिंदुत्व के एजेंडे को छोड़ना पड़ेगा जो अब तक पार्टी की पहचान और जीत का फरमान बनती रही है. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव हिंदुत्व को छोड़ने को राजी हुए. यही वह मुद्दा था जिसके कारण कांग्रेस उनके साथ खडी होने में हिचकिचा रही थी और गठबंधन में देर हुई. उद्धव अपने सहयोगियों को गृह, वित्त, राजस्व और बिजली जैसे प्रमुख मंत्रालय भी देने को राजी हो गए हैं.

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उद्धव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पा ली लेकिन जैसे यह काम आसान नहीं रहा उसी तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहना आसान न होगा. उद्धव ने खुद भी कहा है कि यह कुर्सी हजार कांटों वाली है. ठाकरे कभी विधायक तक नहीं रहे हैं और वह महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री होंगे जिसे प्रशासन और विधायिका में कोई अनुभव नहीं है. वहीं एनसीपी और कांग्रेस की ओर से कैबिनेट में कई अनुभवी नेता होंगे. वे ठाकरे की अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए सरकार पर हावी होने की कोशिश करेंगे और दोनों पार्टियों का इतिहास जैसा रहा है उसे देखते हुए उद्धव भी समझते होंगे कि भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों से खुद को बचाकर रखती आई शिवसेना के दामन पर भी अब कई नए तरह के दाग लग सकते हैं.


मामला इतने भर का ही नहीं है. कांग्रेस और एनसीपी ने संकेत दिए हैं कि वे शैक्षणिक संस्थानों में मुसलमानों के लिए 5 प्रतिशत आरक्षण पर जोर देंगे, लेकिन उद्धव ठाकरे शायद ही इस विचार का समर्थन कर सकें. एनसीपी का विचार है कि सहकारी चीनी मिलों और जिला सहकारी बैंकों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सरकार की ओर से वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए. एनसीपी ऐसा अपने फायदे के लिए चाहती है क्योंकि इसी से उसे फंड और जमीनी पकड़ दोनों मिलती है. चूंकि शिवसेना किसी भी सहकारी चीनी मिल या बैंक को नियंत्रित नहीं करती है, इसलिए ठाकरे के लिए इस मांग पर सहमत होना भी मुश्किल हो सकता है. कांग्रेस और एनसीपी दोनों कृषि उत्पादन बाजार समितियों (एपीएमसी) को पुनर्जीवित करना चाहते हैं जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर उनके नियंत्रण का साधन बन सकता है. शिवसेना का ग्रामीण क्षेत्रों में आधार ही नहीं है इसलिए वह यहां भी एनसीपी और कांग्रेस की राजनीति के हथियार ही बनकर रह जाएंगे. फड़नवीस सरकार ने एपीएमसी की हैसियत नगण्य कर दी थी. राष्ट्रीय कृषि बाजार, या ई-नैम की शुरूआत के बाद से केंद्र सरकार भी एपीएमसी के पर कतर दिए जाने को उत्सुक है. इस बात की पूरी संभावना है कि शिवसेना के गठबंधन सहयोगी केंद्र के इस प्रस्ताव का विरोध करने के लिए ठाकरे पर दबाव बनाएंगे. यानी कुल मिलाकर केंद्र से लड़ते-भिड़ते उद्धव ठाकरे रहेंगे और फायदा एनसीपी-कांग्रेस उठाएंगे.

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वैसे उद्धव के पास अनुभव में कमी हो सकती है पर राजनीतिक कौशल में कमी नहीं है. उद्धव की महत्वाकांक्षा तभी स्पष्ट हो गई थी जब 2007 में बीमारी के कारण बालासाहेब ठाकरे ने खुद को पार्टी के कामकाज से थोड़ा दूर किया और उद्धव ने शिवसेना को अपने करिश्माई चचेरे भाई राज ठाकरे और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे की छाया से बाहर निकालकर पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेने में कोई चूक नहीं की. राज और राणे देखते रह गए और हारकर बाद में पार्टी से खुद को अलग भी कर लिया. हालांकि, राजनीति में ठाकरे की दिलचस्पी 1999 में ही शुरू हुई, जब शिवसेना-भाजपा गठबंधन की कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन के हाथों हार हो गई. अगले पांच वर्षों में, वह बालासाहेब के चुने हुए वारिस के रूप में उभरे और उन्हें 2003 में पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया. उद्धव शिवसेना की छवि एक ऐसी पार्टी के रूप में फिर से गढ़ने को उत्सुक थे जिसे हुड़दंगियों की पार्टी के बजाय, समावेशी विकास में विश्वास रखने वाली पार्टी के रूप में जानी जाए. 2003 में, ठाकरे ने ‘मी मुंबइकर’ नाम से एक अभियान शुरू किया, जिसका उद्देश्य मुंबई के विकास में सभी धर्मों और क्षेत्रों के लोगों को शामिल करना था और राज्यभर का भ्रमण करके शिवसेना के उन क्षत्रपों से मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया जो लंबे समय से राज ठाकरे के भरोसेमंद रहे थे. इस तरह बहुत गुपचुप तरीके से वह राज को कमजोर करते गए और अपनी जमीन मजबूत करते गए. यहां तक पकड़ बनाई कि बालासाहेब ने अपने बेटे की प्रशंसा में कहा था, “उद्धव ने जबरन वसूली करने वालों के गिरोह को मुक्त कराया”. उद्धव स्थापित परंपरा को बदल देने की क्षमता पहले भी दिखा चुके हैं.

हालिया चुनाव की अगर बात करें तो 288 सदस्यीय सदन में भाजपा को केवल 105 सीटों पर जीत मिली थी और बहुमत के लिए उसे 40 विधायकों की आवश्यकता थी. उद्धव ने इस मौके को भी लपका. वह समझ रहे थे कि लगातार तीन राज्य गंवाने के बाद भाजपा महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य को हर साल में बनाए रखना चाहेगी और समझौतों को तैयार होगी. तभी 105 सीटों वाली भाजपा के सामने 56 सीटों के साथ उद्धव ने ढाई-ढ़ाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी. दबाव बनाने के लिए उद्धव ने परिणाम घोषित होने के तीसरे ही दिन साफ कर दिया कि उनके लिए सारे विकल्प खुले हैं और वह किसी शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर रहेंगे. ये बातें दर्शाती हैं कि उद्धव राजनीति के सारे पेंच-पैतरों में माहिर और घाघ नेता भी हैं.

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बेशक उद्धव, बालासाहेब के पुत्र हैं और राजनीति की उन्हें भी अच्छी खासी समझ है लेकिन उन्हें महाराष्ट्र में ही सीधे तौर पर एनसीपी के शरद पवार और कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण जैसे अनुभवी और पुराने खिलाड़ियों के साथ डील करना होगा तो दिल्ली से सोनिया गांधी की ओर से अहमद पटेल जैसे नेताओं के साथ भी तालमेल बिठाना होगा. और अगर यह कहा जाए कि बेशक उद्धव अनुभवी हैं लेकिन यदि बात इन नेताओं के साथ व्यवहार की हो तो उनका अनुभव कम पड़ेगा. और इनमें से भी सबसे ज्यादा कुशलता शरद पवार के साथ व्यवहार में दिखाने की होगी जिन्होंने अकेले अपने दम पर उद्धव को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है. कांग्रेस को गठबंधन में साथ लाने में पवार की बड़ी भूमिका रही है. और इस गठबंधन को बांधने का एक ही कारक है- सत्ता का सुख. यानी तीनों पार्टियां सत्ता सुख के लिए विचाराधाराओं से किनारा किया है और यह बात गठबंधन में व्यवधान का कारण भी बन सकती है.

जब पवार ने सोनिया के सामने उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए सहयोग का प्रस्ताव रखा तो वह हिचक रही थीं. कांग्रेसियों ने भी सोनिया को पवार की बात मानने की सलाह दी, क्योंकि पवार सत्ता की साझेदारी में कांग्रेस को उचित हिस्सेदारी देने के लिए उद्धव को राजी करने की जिम्मेदारी ले रहे थे. पर सोनिया की सारी हिचकिचाहट तब समाप्त हो गई जब कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई ने उन्हें बताया कि पार्टी के पास फंड की ऐसी किल्लत है कि अगले पांच साल तक विपक्ष में बैठकर वह कोई भी अभियान या कार्यक्रम नहीं चला पाएगी और इस तरह राज्य में पार्टी का सफाया भी हो सकता है. हारकर कर्नाटक में गठबंधन के कटु अनुभवों को देखते हुए भी, कांग्रेस एक और ‘असंगत’ सहयोगी के साथ आगे बढ़ने को तैयार हुई. और पवार क्यों माने हैं? इसे भी समझते हैं.

17 नवंबर को पुणे में एनसीपी की बैठक हुई जिसमें प्रफुल्ल पटेल, सुनील तटकरे और धनंजय मुंडे ने शरद पवार से कहा कि हमें अजीत पवार की बात मानते हुए भाजपा का समर्थन कर देना चाहिए. पवार की नजर सिर्फ महाराष्ट्र पर नहीं है. उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपना ओहदा बढ़ाने के एक अवसर की तरह लिया. पवार को भाजपा के साथ जाने का कोई खास फायदा नहीं दिखता था क्योंकि सहयोगी दलों को लेकर भाजपा का रिकॉर्ड उत्साहजनक नहीं रहा है. कांग्रेस नेतृत्व संकट से जूझ रही है और ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव जैसे विपक्षी नेता अपनी जमीन बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में पवार को महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट से कुशलता से निपटकर विपक्ष के ऐसे कद्दावर नेता के रूप में उभरने का अवसर दिख रहा था जो नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी को उनके अपने ही खेल में मात देने का माद्दा रखता है. शरद पवार ने यह सिद्ध कर दिखाया और इसीलिए तीसरे मोर्चे की बातें भी चर्चा में आ गई हैं. इस मोर्चे के सबसे अनुभवी और कुशल नेता के रूप में निःसंदेह कोई और पवार के आसपास भी नहीं दिखता. पवार के रूप में हताश विपक्ष को एक उद्धारक दिखता है.

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बहरहाल एक शिवसैनिक को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने का उद्धव का संकल्प पूरा हुआ है. ‘मंत्रालय’ (मुख्यमंत्री समेत महाराष्ट्र के सभी मंत्रालयों का दफ्तर) पर अब उनका नियंत्रण है और यह उन्हें अपने दो पुराने सपनों को पूरा करने का अवसर देगा. पहला सपना महालक्ष्मी रेसकोर्स में एक विश्वस्तरीय थीम पार्क का निर्माण. नियमानुसार, राज्य सरकार उस जमीन का नियंत्रण ले सकती है, क्योंकि उसका पट्टा समाप्त हो चुका है. ठाकरे बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) के लिए अधिक स्वायत्तता के पक्षधर हैं, जिसपर 1997 से ही शिवसेना का कब्जा है. वह मुंबई के महापौर को न्यूयॉर्क के महापौर की तर्ज पर ही अधिक से अधिक शक्तियों से लैस देखना चाहते हैं. वर्तमान में, मुंबई सात राज्य और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा शासित है. ठाकरे एक एकल नोडल एजेंसी को पसंद करेंगे. आदर्श रूप से, यह नोडल एजेंसी बीएमसी ही होगी. पर सपनों से अधिक जरूरी वे चुनावी वादे हैं जिनपर सबकी नजर होगी कि आखिर वह उसे पूरा कैसे करते हैं.


राज्य में 10,000 भोजनालयों के माध्यम से 10 रुपये में लोगों का भरपेट भोजन, 1 रुपए में करीब 200 बीमारियों की जांच करने वाले क्लीनिक और घरेलू उपयोगकर्ताओं के लिए बिजली दरों में 30 प्रतिशत की कटौती जैसे शिवसेना के लोकलुभावन चुनावी वादों को वह कैसे पूरा करेंगे यह भी देखने की बात होगी जबकि महाराष्ट्र पहले से ही 4.85 लाख करोड़ रुपये के कर्ज में है. उद्धव की ही बात से फिलहाल बात को विराम देते हैं कि सीएम की कुर्सी में हजारों कांटे होते हैं. जाहिर है सबसे ज्यादा कांटे उसे ही चुभेंगे जो उस पर बैठेगा.

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