
बिहार में लगता है कि एनडीए अब टूटी की तब टूटी लेकिन फिर सबकुछ पटरी पर आने लगता है. ऐसा छह महीने से लगातार हो रहा है. भाजपा और जदयू दोनों अपना दम दिखाने को बेताब तो हैं लेकिन जब तक वे अपनी गहराई नहीं माप लेते, कदम संभलकर रख रहे हैं.
बिहार विधान परिषद के सदस्य और भाजपा नेता संजय पासवान प्रेस से बात कर रहे थे और नीतीश कुमार सरकार के प्रदर्शन पर उन्होंने एक बयान दिया- “नीतीश कुमार एनडीए के सर्वमान्य नेता हैं. एनडीए उन पर 15 साल से भरोसा कर रहा है. लेकिन अब एक मौका भाजपा को मिलना ही चाहिए. नीतीश उदार और बड़े दिलवाले व्यक्ति हैं. उन्होंने जीतनराम मांझी को भी सीएम बनाया था. बड़ा दिल रखते हुए वह एक बार किसी भाजपा नेता को सरकार चलाने का मौका दें. हमारे पास सुशील मोदी, नित्यानंद राय सहित कई नेता हैं जो इस जिम्मेदारी को बेहतर निभा सकते हैं.”

इसके बाद हंगामा मचना लाजमी था. नीतीश को अपने पाले में लाने के लिए बेताब महागठबंधन के लिए यह बैठे बिठाए एक मौका मिलने जैसा था. और उसने गंवाया भी नहीं. तेजस्वी ने एक के बाद एक ट्वीट किए और भाजपा को इस बयान का खंडन करने की चुनौती दी. भाजपा के सामने दो दुविधाएं थी. वह अगर खंडन करती है तो स्वीकार करने जैसा होगा कि उसके नेता सुशील मोदी और नित्यानंद राय में सरकार चलाने की खूबी नहीं है. यानी नीतीश नहीं तो कुछ नहीं. अगर खंडन नहीं करती है तो राजद हमलावर रहेगी ही साथ ही जदयू की तरफ से भी बयानबाजी चलती रहेगी. दोनों दलों के बीच केंद्र में मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद से ही एक विचित्र प्रकार का सौतिया डाह चल रहा है. मामला भड़क सकता है क्योंकि संजय पासवान केंद्र में मंत्री रह चुके हैं और एक रणनीति के तहत उन्हें बिहार में विधान परिषद में अमित शाह ने भेजा है.
सुशील मोदी मामला संभालने आए और उन्होंने ट्वीट किया- नीतीश हमारे कैप्टन हैं. 2020 का चुनाव भी उन्हीं की कप्तानी में लड़ा जाएगा. जब कप्तान लगातार चौके-छक्के लगा रहा हो, विरोधियों को संभलने न दे रहा हो उसे बदलने का कोई सवाल ही कहां उठता है.
सुशील मोदी के इस बयान से जदयू ने राहत की सांस ली. जदयू ने राहत की सांस ली? जी, आपने बिल्कुल सही सुना. भाजपा का यह गेम था जिसमें जदयू उलझी हुई थी और उसने उप-मुख्यमंत्री के बयान से राहत की सांस ली क्योंकि पासवान ने अपने बयान में मोदी का नाम लिया था. और खुद दावेदार जब पीछे हटे तो राहत मिलती ही है. पर क्या बात इतनी भर थी? यहीं पर इसे विराम मिल जाएगा? शायद नहीं. क्योंकि जहां भाजपा अपने को नीतीश से अलग होकर तोल रही है वहीं नीतीश भी समझ चुके हैं और कह भी चुके हैं कि यह पहले वाली भाजपा नहीं रही जो सहयोगियों का पूरा ख्याल रखती थी. इसकी पृष्ठभूमि लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद ही लिखी जा चुकी थी.

अमित शाह ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में जनता दल (यूनाइटेड) के लिए मात्र एक सीट का प्रस्ताव दिया जिसे नीतीश कुमार ने खारिज कर दिया. भाजपा ने बिहार के अपने 17 सांसदों में से पांच को केंद्र में मंत्री बनाया, लेकिन 16 सांसदों वाले जदयू के लिए सिर्फ एक मंत्रीपद की पेशकश की. 16 लोकसभा और छह राज्यसभा सांसदों वाली पार्टी के नेता के रूप में, कुमार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में ‘अनुपातिक प्रतिनिधित्व’ की अपेक्षा थी, न कि प्रतीकात्मक उपस्थिति की. उन्होंने अपनी भावना को खुलकर सामने रखा साथ ही पलटवार भी किया. 2 जून को नीतीश ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया. इसमें उन्होंने अपने दल के आठ लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल किया तो भाजपा को सिर्फ एक मंत्रीपद की पेशकश की.
बात यही रूकी नहीं. 9 जून को, जदयू ने घोषणा की कि वह झारखंड, हरियाणा, दिल्ली और जम्मू और कश्मीर के विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी. भाजपा, झारखंड और हरियाणा में सत्ता में है. जाहिर है, इसका मतलब है कि जदयू बिहार को छोड़कर कहीं भी भाजपा गठबंधन का हिस्सा नहीं होगा. हालांकि, जदयू के इस निर्णय का राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभाव नहीं होगा क्योंकि इन राज्यों में उसकी उपस्थिति नाम की ही है.
जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर की संस्था इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी (आई-पैक) ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का चुनावी कैंपेन तैयार कर रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह दोनों ने जिस अंदाज में बंगाल को संभाला है उससे लगता है कि ममता अब उनकी दुश्मन नंबर-1 हैं और उन्हें उखाड़ने का वे संकल्प कर चुके हैं.
संसद में मोदी-2 सरकार तीन तलाक और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटाने का प्रस्ताव लेकर आई लेकिन भाजपा की धुर विरोधी कई पार्टियों ने तो उसका साथ दिया लेकिन एनडीए की सहयोगी जदयू ने साथ न दिया. यानी दोनों दलों के बीच तल्खी अंदरखाने जोरदार है.

नीतीश कुमार भी कहते रहे हैं कि उनके पास विकल्प हैं लेकिन वह एनडीए के ही साथ रहेंगे. उनकी इस बात के दो पहलू हैं- पहला कि उनके पास विकल्प है और दूसरा कि फिर भी वह एनडीए में रहेंगे.
पहले वाले पहलू को समझते हैं कि वह ऐसा क्यों कहते हैं. राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह और शिवानंद तिवारी नीतीश से घर वापसी की पेशकश कर चुके हैं. जो राबड़ी देवी कभी यह कहती थीं कि गद्दार को घर में नहीं घुसने देंगी और उनके दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी ने नीतीश को गद्दार बताने के लिए अपनी शब्दावली के सारे तीर चलाए थे,वह राबड़ी भी कह चुकी हैं कि अगर राज्य में महागठबंधन में जेडीयू फिर से शामिल होना चाहे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है.यानी नीतीश के लिए रास्ता राजद का फिर से खुला है. ऐसा इसलिए है क्योंकि असफल राज्य के रूप में देखे जाने वाले बिहार को उन्होंने देश में सबसे तेजी से बढ़ते हुए राज्य में बदल दिया है और इसके कारण उन्हें भरपूर समर्थन भी है.
इसके अलावा पिछले पंद्रह सालों में, नीतीश कुमार बिहार के लिए एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जो चुनौतियां स्वीकार करता है. 2005 से 2019 तक, बिहार में चार विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव हुए हैं. और इनमें से प्रत्येक चुनाव- 2014 के लोकसभा चुनाव को छोड़कर जब नरेंद्र मोदी की लहर ने बिहार और पूरे देश को अपने साथ बहा लिया था- विजेता हमेशा वही रहा जिसके साथ नीतीश कुमार खड़े थे. वास्तव में, बिहार में हुए पिछले सात चुनावों में से छह में चाहे वह भाजपा हो या फिर राजद और कांग्रेस, जीता वही है जिसके साथ नीतीश थे.

अब दूसरी बात कि नीतीश इतने बड़े विनिंग फैक्टर हैं, राज्य में सबसे बड़े आधार वोट बैंक वाली राजद उनसे फिर से हाल मिलाने को तैयार है फिर भी वह एनडीए में ही क्यों रहेंगे. 2019 के लोकसभा चुनावों में, जिसमें नीतीश कुमार की पार्टी ने जिन 17 सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से 16 पर जीत हासिल की लेकिन भाजपा ने सारी 17 सीटें जीत लीं. जेडीयू ने 2015 के विधानसभा चुनावों में मिले अपने वोटों में 24.85 लाख नए वोट जोड़े और 38.73% की अविश्वसनीय छलांग लगाई. वहीं भाजपा को 2015 में मिले वोटों से सिर्फ 3.10 लाख अतिरिक्त वोट मिले. यानी मोदी लहर का बड़ा फायदा नीतीश का ही रहा. भाजपा का मानना है कि उसने जो भी वोट जोड़ा वह मोदी को मिला अतिरिक्त वोट था. नीतीश के कारण उसे कुछ नहीं मिला. उसने 2014 के मुकाबले कम सीटों पर चुनाव लड़ा. यानी कुल मिलाकर वह नीतीश के होने से खुद को बहुत फायदे में तो नहीं देखती लेकिन नीतीश उसे ज्यादा फायदा उठाते नजर आते हैं. और यह बात नीतीश या जदयू खुलकर भले न मानें लेकिन भाजपा के साथ वह हर तरह के फायदे में रहते हैं. उन्हें सरकार चलाने में भी पूरी आजादी मिलती है जो कि लालू के साथ रहकर नहीं मिलती है. अकेले वह जीत नहीं सकते. उन्हें किसी न किसी दल का साथ चाहिए ही और भाजपा हर लिहाज से बेहतर है. लालू के साथ जाकर वह खत्म हो रही पार्टी को संजीवनी नहीं देना चाहेंगे. यह बात भाजपा भी समझती है इसलिए वह भी खुलकर नहीं आ रही है.

नित्यानंद राय को गृह राज्यमंत्री बनाए जाने के पीछे यही कारण था. लालू जेल से बाहर नहीं आने वाले, उनके बेटों में आपसी फूट है, एक हार से तेजस्वी पस्त हैं, नीतीश राजद को लगातार कमजोर करते जा रहे हैं. ऐसे में राजद के वोट बैंक को साधने में राय काम आ सकते हैं क्योंकि वह प्रदेश में किंगमेकर की हैसियत में दिखने वाली यादव बिरादरी से ही आते हैं. उनका कद बढ़ाकर भाजपा धीरे-धीरे अपनी तैयारी कर रही है.
2010 के विधानसभा चुनाव में, जदयू भाजपा के साथ गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में थी. विधानसभा की कुल 243 सीटों में से भाजपा ने 102 सीटों पर जबकि जदयू ने 141 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 2015 में, भाजपा छोटे दलों के साथ उतरी थी और उसने 157 सीटों पर चुनाव लड़कर 53 जीतीं, जबकि नीतीश महागठबंधन में थे. तब जेडी(यू)ने 101 सीटों पर चुनाव लड़कर 71 जीती थीं. 370 और तीन तलाक हटाने के बाद भाजपा का मनोबल बढ़ा है. महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनाव होने वाले हैं जहां उसका प्रदर्शन अच्छा होने की उम्मीद है. इससे भाजपा को बल मिलेगा और वह नीतीश के साथ सीटों को लेकर कड़ी सौदेबाजी भी कर सकती है. जैसे-जैसे चुनाव का वक्त करीब आता जाएगा स्थिति स्पष्ट होती जाएगी. अभी तो उम्मीद यही की जा सकती है कि दोनों दल अपने-अपने सिपहसालारों के जरिए छोटे-मोटे मोर्चे खोलते रहेंगे और मापते रहेंगे कि कौन कितने पानी में है.
