बिहार चुनाव 2020#: वो मान जाएंगे, अपनी जगह पहचान जाएंगे….

चुनाव आयोग ने कोरोना प्रोटोकॉल के साथ बिहार में चुनावों की घोषणा कर दी. जहां विपक्ष चुनाव टालने की मांग कर रहा था वहीं सत्तारूढ़ एनडीए (केवल भाजपा और जदयू, लोजपा भी टालना चाहती थी) समय से चुनाव कराने की मांग पर अड़ा था. बहरहाल आयोग ने तो कह दिया कि तीन चरणों में चुनाव करा लेंगे लेकिन चुनाव की मांग करने वाले अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि किसके खाते में कितनी सीट.

हालांकि बिहार में अब धीरे-धीरे संकेत मिलने लगे हैं कि सीएम नीतीश कुमार का ऊंट केवड़ पहाड़ के नीचे नहीं, बल्कि पुलिया के नीचे भी पहुंच गया है. उन्हें अपनी जमीन पहले जैसे मजबूत नहीं दिख रही है. सीएम ने इसी महीने पहली ऑनलाइन रैली की थी, जिसपर सारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और उनके अपने ऐप को मिलाकर भी कुल जमा 10 हजार लोग भी नहीं जुड़े. यानी करिश्मा तो गायब है, अलबत्ता विधायकों को दौड़ा लेने की घटनाएं खूब सुनने में आ जाती हैं.

बिहार में लोग एनडीए से उतने नाराज़ नहीं हैं, लेकिन नीतीश कुमार से बड़े नाराज़ हैं. पंद्रह साल से नीतीश सीएम हैं, कभी भाजपा के साथ तो कभी राजद और कांग्रेस के साथ लेकिन राज्य की कमान उन्होंने अपने हाथों में ही रखी है. इसलिए लाजमी है कि लोगों का सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें भी झेलना होगा. औन नीतीश को जनता की नाराजगी की आंच तपाने भी लगी है.

इससे उनके तेवर में भी नरमी आई है. महीने भर पहले वह सवा सौ से कम सीटों पर चुनाव लड़ने को कतई तैयार न दिखते थे. लेकिन उन्होंने माहौल भांपा. नीतीश ने जब मांझी जैसे छूटे पटाखे को अपने खेमे में लिया तभी भाजपा के लिए साफ हो चला था कि अब नीतीश की ठसक कम होगी. इसके बाद तो अब वे धुर विरोधी कुशवाहा को भी एनडीए के खेमे में लेने को सहर्ष राजी हैं. यानी नीतीश बाबू के हालात बाढ़ में बहे पुल वाली ही है, मांझी-कुशवाहा के ज़रिए बस यह दिखाने की कोशिश होगी कि पुल नहीं बहा है, केवल एप्रोच रोड धंस गई है. और यही तो भाजपा के लिए फायदे की बात है.

पूरा पुल धंस जाए तो भाजपा को कुछ हासिल नहीं होगा, अप्रोच रोड धंसने से उसे जबरदस्त सौदेबाजी का मौका मिल गया है. वह तो नीतीश की किस्मत अच्छी है कि अमित शाह थोड़े अस्वस्थ चल रहे हैं और भाजपा को जेपी नड्डा के रूप में जना कृष्णमूर्ति के बाद कोई इतना कमज़ोर अध्यक्ष मिला है. शाह पूरी तरह एक्शन में होते तो बात कुछ और होती. फिर भी ख़बर है कि बराबर-बराबर सीटों पर लड़ने को आख़िर नीतीश बाबू आख़िरकार तैयार हो रहे हैं.

बंटवारे का जो फॉर्मूला चल रहा है उसमें भाजपा-जदयू के 100-100 सीटों, चिराग पासवान की लोजपा (25 सीटों +2 एमएलसी), मांझी को 3-4 और कुशवाहा को 4-5 सीटें देने पर भाजपा-जदयू में सहमति बन रही है. भाजपा की एकाध घट सकती हैं और जदयू की एकाध बढ़ सकती हैं. या फिर दोनों एक दूसरे के सिंबल पर अपने प्रत्याशी उतारें और 5 से 10 सीटों पर फ्रेंडली फाइट की संभावना भी टटोली जा रही है.

15 साल में नीतीश आज जहां खड़े हैं वहां से वे इससे ज़्यादा मोलभाव की स्थिति में नहीं हैं और अगर भाजपा और जदयू अलग-अलग लड़ लें तो भाजपा को ज़्यादा सीटें मिल जाएंगी. भाजपा का वोटर शहरी है. शहरों में NDA की हालत उतनी ख़राब नहीं है पर गांवों से बहुत कुछ बह चुका है और सम्भालने के लिए अब नीतीश के पास वक़्त नहीं है.

केंद्र की ओर से फ्री राशन वाली स्कीम खत्म होने के बाद अगर चुनाव होते तो राम ही जानें क्या होता. इसीलिए जब भी विपक्ष और यहाँ तक कि चिराग़ ने चुनाव टालने की बात छेड़ी प्रतिक्रिया जदयू की ओर से ही रही.

मगर क़िस्मत नीतीश का कुछ साथ दे रही है. तेजस्वी ने विधानसभा में भाषण करके और फिर उपचुनाव जीतकर जो इमेज बनाई थी वह कुछ लोकसभा की हार से और कुछ दिवंगत रघुवंश बाबू और अन्य नेताओं के उद्गारों से ध्वस्त हो चुकी है. राजद के कार्यकाल के लिए माफी भी मांग चुके हैं पर उसका कोई खास असर होत नहीं दिख रहा. यहां तक कि राजद के लिए राघोपुर का गढ़ बचाने को लेकर भी संशय है. राबड़ी देवी इस सीट से चुनाव जीतती थीं और 2015 में तेज प्रताप वहां से विधायक बने. पर तेज प्रताप को हार का डर सता रहा है और उन्होंने सीट बदल ली है. बताया जाता है कि अब वे हसनपुर से लड़ेंगे.

हालांकि लालू और तेजस्वी दोनों इसके पक्ष में नहीं थे क्योंकि उन्हें लगता था कि राजद के कार्यकताओं के आत्मविश्वास पर इससे फ़र्क पड़ेगा, पर तेज के आगे झुकना ही पड़ेगा. अगर लालू जेल से बाहर होते तो बात कुछ और होती. नीतीश और दबाव में होते और इसका फायदा उठाते हुए भाजपा शायद नीतीश को मांझी को भी अपने ही कोटे से एडजस्ट करने को कह देती. पर लालू अंदर हैं और शाह एक्शन मोड में आने की स्थिति में नहीं. इसलिए नीतीश को थोड़ी राहत है.

अब प्रधानमंत्री जितनी भरपाई करा सकें, सारा खेल उसी पर निर्भर करता है. भाजपा के लिए अकेले चुनाव लड़ने का यह आदर्श समय था पर अगर ऐसा करती है तो उसपर सहयोगियों को ठेंगा दिखाने के आरोपों को बल मिल जाएगा. सबकी पूंछ कहीं न कहीं दबी है. और इसी वजह से अगर नीतीश कुमार नवंबर में फिर से शपथ लें तो हैरानी नहीं होगी. ये “ठीके तो है नीतीश कुमार” का असर नहीं होगा बल्कि TINA इफ़ेक्ट यानी ‘कोई विकल्प नहीं है’ के भाग्य से नीतीश के सिर पर ताज फिर से सज सकता है.

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