खाकीधारी अधिकारियों से खादीदारी बनने का रोमांच

बिहार और उसी से अलग हुए झारखंड में पुलिस अधिकारियों में वर्दी छोड़कर खादी पहनने की ललक बहुत देखी जाती है. अभी हाल ही में 1987 बैच के पूर्व आईपीएस अफसर और डीजी रैंक के अधिकारी रहे सुनील कुमार रिटायरमेंट के तुरंत बाद जदयू में शामिल हो गए हैं और उनके चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. झारखंड में तो हर चुनाव में राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी किस्मत आजमाने उतरते हैं.

2019 में हुए विधानसभा चुनाव में झारखंड के तीन पूर्व आईपीएस अधिकारियों और एक पूर्व आईएएस ने चुनाव लड़ा था जबकि टिकट की आस में विभिन्न पार्टियों से जुड़े चार बड़े पुलिस अधिकारियों को आखिरी समय में टिकट नहीं मिल पाया. खैर अभी बिहार की बात करते हैं क्योंकि बिहार में चुनाव होने वाले हैं. बिहार की बात शुरू करने के लिए मौजूदा डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय से बेहतर उदाहरण कौन हो सकता है.

गुप्तेश्वर पांडेय 2009 के आम चुनाव में बिहार की बक्सर लोकसभा सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहते थे. उन्हें लगता था कि भाजपा बक्सर के सांसद लालमणि चौबे का टिकट काटेगी इसलिए यह एक अच्छा मौका हो सकता है. गुप्तेश्वर पांडेय अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया लेकिन लालमणि चौबे बाग़ी हो गए. हारकर भाजपा ने लालमणि चौबे को ही फिर से उतारा. गुप्तेश्वर पांडेय के लिए हालत न माया मिली न राम वाली हो गई.

इसलिए उन्होंने पुलिस सेवा में वापसी का रास्ता खोजा. इस्तीफ़ा देने के 9 महीने बाद उन्होंने बिहार सरकार के पास अर्जी लगाई कि वे अपना इस्तीफ़ा वापिस लेना चाहते हैं. चूंकि पांडेय नीतीश के करीबी रहे हैं इसलिए नौकरी में वापसी हो गयी. आज वह डीजीपी हैं और सुशांत सिंह राजपूत के मामले पर उनकी बयानबाजी का अंदाज पुलिस प्रमुख से अधिक एक राजनेता वाला रहा है.  

खैर, सुनील कुमार की बात पर पर लौटते हैं. 31 जुलाई 2020 को रिटायर हुए आईपीएस सुनील कुमार गोपालगंज जिले से हैं और उनकी की छवि एक तेज तर्रार आईपीएस ऑफिसर की तो रही ही है साथ ही उनका राजनीति से भी संबंध है. सुनील कुमार के भाई अनिल कुमार इसी जिले से कांग्रेस के विधायक हैं. बताया जाता है कि टिकट के आश्वासन के साथ ही सुनील कुमार ने जदयू के साथ 29 अगस्त से अपनी सियासी पारी की शुरुआत की है.

ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ आईपीएस अधिकारियों अफसरों में ही माननीय विधायक जी कहलाने का क्रेज है. कनिष्ठ अधिकारी भी इस रेस में रहते हैं. इस बार मुजफ्फरपुर जिले में यह क्रेज सबसे ज्यादा देखा जा रहा है. इस जिले के अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों से कई ऐसे लोग चुनाव मैदान में उतरेंगे, जो खाकी वर्दीधारी रहे हैं. इनमें से कुछ तो अभी नौकरी में हैं और वीआरएस लेने की तैयारी में हैं. उनमें एक रिटायर्ड डीआइजी और एक रिटायर्ड डीएसपी के अलावा दो इंस्पेक्टर भी हैं, जो वीआरएस लेने वाले हैं.

क्षेत्र और मीडिया में चल रही चर्चा की मानें तो मुजफ्फरपुर के चंदवारा निवासी व झारखंड कैडर में डीआइजी रहे नागेंद्र चौधरी वीआरएस लेकर सकरा (सुरक्षित) सीट से विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटे हुए हैं. उनके पिता शिवनाथ चौधरी भी जिला परिवहन पदाधिकारी के पद से रिटायर होने के बाद दो बार जदयू के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े थे. नागेंद्र चौधरी 2018 से ही वीआरएस लेकर सकरा में चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं. वीआरएस लेने के बाद उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी भाजपा से टिकट की आस है.

मुजफ्फरपुर स्पेशल ब्रांच में तैनात इंस्पेक्टर विनय कुमार सिंह मीनापुर से चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं. बड़ी संख्या में नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने के कारण विनय को सम्मानित भी किया जा चुका है. मीनापुर क्षेत्र में वे मेडिकल व पशु चिकित्सा कैंप भी लगा चुके हैं. कोरोना के बीच राहत सामग्री और मास्क लगातार बंटवाते रहे हैं. विनय सिंह ने ऐलान कर दिया है कि वह हर हाल में मीनापुर से चुनाव लड़ेंगे. किसी बड़े दल ने टिकट दो तो बहुत अच्छा नहीं मिला तो निर्दल लडेंगे, मगर लड़ेंगे जरूर. हालांकि अभी तक उन्होंने नौकरी से वीआरएस या इस्तीफे की अर्जी दी नहीं है.

इसी तरह कुछ समय पहले तक मुजफ्फरपुर जिले में थानाध्यक्ष रहे इंस्पेक्टर रवींद्र यादव भी औराई सीट से चुनाव लड़ने को तैयार हैं. हालांकि रवींद्र यादव मोतिहारी जिले के रहने वाले हैं लेकिन औराई में तैनाती के दौरान उन्होंने अच्छी छवि बनाई है. उन्हें भरोसा है कि एनडीए गठबंधन से टिकट मिलेगा. इन्होंने इस्तीफा दिया है या नहीं इसकी पक्की सूचना नहीं है.

औरंगाबाद जिले में एक जगह है ओबरा. ओबरा थाने थानाध्यक्ष होते थे इंस्पेक्टर सोमप्रकाश सिंह. उन्होंने इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा था. कहा जाता है कि उन्हें चुनाव वहां की जनता ने निर्दलीय लडाया और जिताया भी था. 2010 के विधान सभा चुनाव में निर्दलीय सोमप्रकाश सिंह ने जदयू के उम्मीदवार प्रमोद चंद्रवंशी को हराया था. हालांकि उन्होंने चुनाव से ऐन पहले इस्तीफा दिया था और उनका इस्तीफा अभी मंजूर भी नहीं हुआ था कि उन्होंने चुनाव के लिए पर्चा दाखिल कर दिया. इस आधार पर चंद्रवंशी ने उनके निर्वाचन को चुनौती दी और निचली अदालत ने उनका निर्वाचन रद्द भी कर दिया था.    

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