नागरिकता कानूनः एक पुराना मर्ज

नागरिकता संशोधन कानून लाने वाली भाजपा के पास इसमें खोने के लिए खोने को कुछ नहीं है. इसलिए वह इसके साथ मजबूती से बनी है जबकि विपक्ष अभी पूरा आकलन नहीं कर पाया है. देशभर में हो रहे ये विरोध प्रदर्शन दरअसल विपक्ष का ‘ट्रायल एंड एरर’ यानी प्रयत्नों से त्रुटि को खोजने वाला प्रयोग है जिसमें वह त्रुटियां ज्यादा करता दिखता है.

मूलरूप से असम के डिब्रूगढ़ जिले की निवासी शिल्पा अग्रवाल अब दिल्ली में रहती हैं. वह डिब्रूगढ़ एक पारिवारिक शादी में शामिल होने गई थीं. 7 दिसंबर की रात को शादी के फेरे पूरे होने के साथ ही दिल्ली, अहमदाबाद, कोलकाता और दूसरे शहरों से आए उनके रिश्तेदार आनन-फानन में एयरपोर्ट की ओर निकल पड़े. उन्होंने बारात की वापसी का इंतजार करना भी ठीक नहीं समझा. नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सिटीजन अमेंडमेंट बिल या सीएबी को लेकर असम में बढ़ती सरगर्मी गृह मंत्री अमित शाह द्वारा विधेयक को 9 दिसंबर को लोकसभा में रखे जाने से पहले ही दिखने लगी थी. शिल्पा के परिवार के बड़े बुजुर्गों के मन में 40 साल पुरानी घटनाएं ताजा होने लगीं जब अप्रवासियों के मुद्दे पर असम छह साल तक जलता रहा था. उन्होंने भारी मन से, शादी को बीच में छोड़कर फौरन राज्य के बाहर निकल जाने को कहा. उन्हें जैसे-तैसे दिल्ली की एक फ्लाइट दो दिनों बाद 9 दिसंबर की रात को मिली और सभी पहले दिल्ली आए और उसके बाद जिसे जहां जाना था वहां निकल गया. करीब 40 घंटे का समय सबने एयरपोर्ट पर बिताया. बाहर मशालें लिए प्रदर्शनकारी मार्च करते रहे. सीआईएसएफ चौकन्नी थी इसलिए प्रदर्शनकारियों को एयरपोर्ट में तो नहीं घुसने दिया गया लेकिन एयरपोर्ट के ठीक बाहर गाड़ियां जलाई गईं. शिल्पा उस घटना को याद करती हैं, “अपने भाई की शादी को बीच में छोड़कर चोरों की तरह आधी रात को भागना पड़ा. बुरा तो लग रहा था लेकिन अगर उस दिन हम नहीं निकले होते तो फिर जाने कब तक फंसे रहते.” शिल्पा और उनके परिवार का अंदेशा सही था. उसके बाद हफ्ते भर तक असम में उपद्रव होते रहे. कई लोगों की जान भी गई. असम पहले भी इस मुद्दे पर बहुत सुलगा है. उस पर भी बात करेंगे लेकिन पहले समझते हैं कि आखिर सीएबी है क्या जिस पर इतना हंगामा बरपा है. हालांकि विधेयक लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह पास हो जाने के कारण अब कानून(एक्ट) बन चुका है यानी सीएबी अब सीएएए है. क्या असम, क्या बंगाल, क्या यूपी, क्या दिल्ली, मुंबई, गुजरात और क्या दक्षिण भारत, सीएए के कारण पूरा देश दो गुटों में विभाजित दिखता है. एक जो सीएए के साथ हैं दूसरे जो सीएए के खिलाफ हैं. विभाजन की इतनी बड़ी खाई हाल के वर्षों में नहीं देखी गई, तब भी नहीं जब सरकार ने इससे कहीं ज्यादा मुश्किल फैसला कश्मीर से 370 को हटाने का लिया था.     

सीएए पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए अवैध हिंदू, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख और पारसी अप्रवासी को भारत की नागरिकता का पात्र बनाता है बशर्ते वे 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में आए हों और कम से कम छह साल उन्होंने भारत में बिताए हों. लेकिन इसके दायरे से मुस्लिम समुदाय को बाहर रखा गया है और यही विवाद की मुख्य वजह है. जो सीएए के विरोध में हैं उनका मानना ​​है कि यह संविधान और भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का उल्लंघन करता है जबकि समर्थकों का तर्क है और यही तर्क केंद्रीय मंत्रीगण भी दे रहे हैं कि इन देशों के अल्पसंख्यक खासकर हिंदुओं को अगर भारत नहीं आसरा देगा तो फिर कौन देगा? हालांकि श्रीलंका से आए तमिलों को लेकर भी ऐसा प्रश्न तमिलनाडु में है लेकिन तमिल हिंदुओं को इसके दायरे से बाहर रखा गया है. इसके पीछे सरकार का तर्क है कि हम सिर्फ मुस्लिम देशों में सताए जा रहे अल्पसंख्यकों की सहायता करना चाहते हैं. श्रीलंका एक धर्मनिरपेक्ष देश है और वहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार का ऐसा कोई इतिहास नहीं है इसलिए श्रीलंका से आए शरणार्थियों को इससे बाहर रखा गया है. 

इस कानून की जरूरत बताते हुए लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री ने कुछ आंकड़े पेश किए- 1951 में भारत में हिंदुओं की आबादी के 84 प्रतिशत थी जो आज घटकर आज 79 प्रतिशत हो गई है और वहीं मुस्लिम आबादी जो 1951 के 9.8 प्रतिशत थी वह बढ़कर आज 14.23 प्रतिशत हो गई है. 1947 में पाकिस्तान में 23 फीसदी हिंदू थे लेकिन वहीं साल 2011 में ये आकंड़ा 3.4 फीसदी रह गया. बांग्लादेश में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 22% थी जो 2011 में मात्र 7.8% हो गई. गृह मंत्री ने चिंता जाहिर की, “ये अल्पसंख्यक कहां गए? मार दिए गए, धर्म परिवर्तन हुआ, फिर भगा दिए गए? जो लोग विरोध कर रहे हैं, वे बताएं कि इन अल्पसंख्यकों का क्या दोष है? पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों पर भारत चुप नहीं रहेगा.” शाह का यह रूख कानून बनने के बाद भी कायम है और उन्होंने साफ कर दिया है कि विपक्ष चाहे जितना हंगामा मचा ले वह इससे पीछे हटने वाले नहीं.

दुनियाभर के शरणार्थियों से जुड़ी समस्याओं की निगरानी करने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ के कोषांग संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय (यूएनएचसीआर) के 2017 के अनुमानों के अनुसार, भारत में 2,00,000 शरणार्थी हैं और इस तरह भारत शरणार्थियों को पनाह देने के मामले में दुनिया का 25वां सबसे बड़ा देश है. भारत में कई देशों के निवासियों ने अलग-अलग समय पर शरण ली है. 1959 में आए तिब्बती शरणार्थी, 1971 में बांग्लादेश से आए शरणार्थी, 1963 और फिर 1970 में आए चकमा शरणार्थी और; 1983, 1989 और 1995 में श्रीलंका से आए तमिल, इसके अलावा 80 के दशक के आए अफगान शरणार्थी.

केवल तीन देशों के शरणार्थियों पर एक कानून सीएए बनाए जाने के कारण कई सवाल उठाए जा रहे हैं जिनमें से ज्यादातर राजनीतिक हैं. बारत में विदेशियों को शरण देने के जो मौजूदा नियम हैं उनके अनुसार, पड़ोसी देशों (म्यांमार को छोड़कर) के शरणार्थी सरकार से सीधे सुरक्षा की मांग कर सकते हैं और उन्हें विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी (एफआरआरओ) इससे जुड़े दस्तावेज जारी करते हैं. गैर-पड़ोसी देश और म्यांमार, यूएनएचसीआर प्रावधानों के तहत आते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के दावे का अलग-अलग आकलन किया जाता है यानी सामूहिकता की बात नहीं होती. वर्तमान में म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों सहित सभी शरणार्थियों को भारत के लिए ‘दीर्घकालिक वीजा’ का आवेदन करने की अनुमति दी जाती है लेकिन उनके पास यूएनएचसीआर आईडी होना जरूरी है और सरकार हर मामले की अलग से छानबीन के बाद ही वीजा जारी करती है.

सीएए के कारण देशभर में हुए विरोध प्रदर्शनों में अब तक दर्जनभर लोगों की जान चुकी है और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हो चुका है. सरकार कह रही है कि इसका असर भारतीय नागरिकों पर नहीं होगा फिर भी देशभर में इतनी मारामारी की वजह क्या है. असम से शुरू हुई आग पूरे देश में कैसे फैली? असम का मामला पूरे देश के मामले से अलग है. और सरकार बार-बार कह रही है कि असम समझौते के खंड 6 का पालन करके असमिया लोगों की सारी चिंताओं को दूर किया गया है. वहां सत्ताधारी भाजपा लगातार रैलियां करने जा रही है जिसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी संबोधित करेंगे. उत्तर-पूर्व में पहली बार अपनी पैठ बनाने के बाद भाजपा ने इतना बड़ा जोखिम यूं ही नहीं लिया है. उसने सारे राजनीतिक नफे-नुकसान का पूरा हिसाब किताब लगाते हुए पिछली गलती से सबक भी लिया है. यह विधेयक पहली बार 2016 में लोकसभा में आया था और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बहुत कोहराम मचा था. लेकिन राज्यसभा में पारित न होने के कारण गिर गया. कहा जाता है कि सरकार ने खुद ही कदम पीछे खींच लिए थे क्योंकि उसके पास पूर्वोत्तर की बहुत सी चिंताओं को दूर करने के ठोस रास्ते नहीं दिख रहे थे. इस बार सरकार ने उसे पास करा लिया है, जाहिर है कि पिछली चिंताओं को दूर करने का रास्ता भी खोजा गया है. इसके लिए सरकार ने काफी होमवर्क किया क्योंकि वह 1980 के दशक में हुई असम की हिंसा वाली स्थिति फिर से पैदा होने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. उस हिंसा को बड़ी मुश्किल से असम समझौते से निकाला गया था जिसे असम एकॉर्ड या असम समझौता के नाम से जाना जाता है. तो सरकार ने पूर्वोत्तर को कैसे मनाने की कोशिश की है?

सीएए पूर्वोत्तर के असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रो पर लागू नहीं होगा क्योंकि इन क्षेत्रों को संविधान की छठी अनुसूची के तहत विशेषाधिकार हैं. साथ ही बंगाल पूर्वी सीमा विनिमयन 1873 के तहत इनर लाइन परमिट (आईएलपी) वाले इलाके में भी लागू नहीं होगा. यानी इस तरह कानून अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड मिजोरम और लगभग समूचे मेघालय के साथ-साथ असम और त्रिपुरा के बड़े हिस्सों में भी लागू नहीं होगा. इस विधेयक को लोकसभा में रखने के साथ ही गृहमंत्री ने मणिपुर में भी आईएलपी को मंजूरी दे दी थी. इसके उपलक्ष्य में राज्य सरकार ने एक दिन का सार्वजनिक अवकाश घोषित किया ताकि लोग इसका आनंद मना सकें. मिला-जुलाकर बात पूर्वोत्तर के असम में ही मुख्य रूप केंद्रित हो जाती है . असम के बोडोलैंड सीमावर्ती जिलों कार्बी एंगलोंग और दीमा हासो में भी यह कानून लागू नहीं होगा. बराक घाटी जहां बांग्लादेशी हिंदुओं का वर्चस्व है और जिनके लिए वास्तव में यह कानून बनाया गया है वहां मिठाइयां बंट रही हैं. कुल मिलाकर असम में भी भाजपा को सिर्फ ब्रह्मपुत्र घाटी को संभालना है जहां कड़ा प्रतिरोध हो रहा है. इसके लिए असम समझौते के प्रावधान और खंड-6 को लागू करके सरकार माहौल को अपने पक्ष में बनाने की कोशिश करेगी. असम में 1979 से लेकर 1985 तक प्रवासियों को राज्य से बाहर करने की मांग को लेकर बहुत हिंसक प्रदर्शन हुए और आखिरकार केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने 15 अगस्त 1985 को असम आंदोलन के नेताओं के साथ एक समझौता किया. इसके अनुसार 1 जनवरी, 1966 से पहले असम आने वाले सभी लोगों को नागरिकता दी जाएगी. 1 जनवरी, 1966 तथा 24 मार्च, 1971 के बीच आए लोगों के बारे में निर्णय “विदेशी अधिनियम, 1946 और विदेशी (ट्रिब्यूनल) ऑर्डर 1964 के प्रावधानों के अनुसार होगा. उनके नाम मतदाता सूची से हटाए जाएंगे और उन्हें 10 साल की अवधि के लिए विस्थापित किया जाएगा. 25 मार्च, 1971 या उसके बाद असम आए विदेशियों का पता लगाए जाने का कार्य जारी रहेगा और ऐसे विदेशियों को निष्कासित करने के कदम उठाए जाएंगे. राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी इसी असम समझौते का परिणाम है. सीएए 31 दिसंबर 2014 तक भारत आए सभी गैर-मुस्लिमों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था देता है.

 असम के लोग विरोध की मुख्य वजह बांग्लादेशी हिंदुओं को भारत की नागरिकता दिए जाने के कारण अपनी भाषा और संस्कृति पर खतरे को बताते हैं. दरसअल इसके पीछे एक पुरानी वजह है. अंग्रेजों ने 1826 में असम को नियंत्रण में लिया तो दफ्तर के काम में सहयोग के लिए अपने साथ बंगाल के लोगों को भी लेकर आए क्योंकि बंगाल में उन्होंने बंगालियों के बीच एक बड़ा दफ्तरी वर्ग तैयार कर लिया था. बंगालियों ने अंग्रेजों के बीच अपनी पकड़ का फायदा उठाया और उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि असमिया दरअसल बांग्ला की ही एक अपभ्रंश है. बंगाली समझने वाले असमिया को आसानी से समझते हैं. अंग्रेजों ने असम के लिए एक और भाषा का प्रावधान करने की बजाय बांग्ला को ही असम की शासकीय भाषा बना दिया. बाद में बापतिस्त मिशनरियों ने 1873 में एक भाषाई आंदोलन छेड़ा और अंग्रेजों को बताया कि उन्हें किस तरह मूर्ख बनाया गया है. इसके बाद असमिया को असम की शासकीय भाषा बना दिया गया. बांग्लाभाषियों के हाथों एक बार अपनी भाषा पर हुए प्रहार की बात को असमिया लोग भूला नहीं पाए हैं और वे बांग्लाभाषियों की बढ़ती संख्या से आशंकित रहते हैं, अपनी भाषा पर खतरे के रूप में देखते हैं. हालांकि असम समझौते के खंड 6 में इसकी रक्षा के प्रावधान किए गए हैं. खंड-6 कहता है कि असम के लोगों की सांस्‍कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान व विरासत के संरक्षण और उसे प्रोत्‍साहित करने के लिये उचित संवै‍धानिक, विधायी और प्रशासनिक उपाय किये जाएंगे. यही बात अमित शाह कह रहे हैं और इसी के आधार पर भाजपा को भरोसा है कि वह असम को मना लेगी.

अब बचता है बंगाल जहां मुख्यमंत्री ने स्वयं विरोध में रैलियां निकालनी शुरू की हैं और रोज कई किलोमीटर की पदयात्रा कर रही हैं. बंगाल का हाल समझते हैं.

नागरिकता कानून को आनन-फानन में लाने और उसको लेकर खुद राज्य सरकार द्वारा विरोध का नेतृत्व करने के पीछे की सबसे बड़ी वजह है असम के साथ साथ पश्चिम बंगाल में भी 2021 में होने वाले चुनाव. राज्य के 294 विधानसभा क्षेत्रों में 70-80 सीटों पर बांग्लादेशी हिंदुओं की हैसियत चुनाव के नतीजे तय करने वाली है.

2019 के आम चुनाव में, बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने 42 में से 22 सीटें जीती थीं जबकि भाजपा ने 18 सीटें. दोनों दलों के बीच वोट शेयर का अंतर, केवल 3.3 प्रतिशत यानी 21 लाख वोटों का ही था. सीएए हिंदू बांग्लादेशी शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करना और एक ऐसा एनआरसी लेकर आना जो अंततः केवल ‘अवैध’ प्रवासियों का पता लगाएगा जो कि मुसलमान ही होंगे, भाजपा के लिए वोटों के इस अंतर को पाटने में मददगार हो सकता है. इस बीच, ममता बनर्जी की अगुवाई वाली टीएमसी, बंगाल के कुल 6.98 करोड़ मतदाताओं में से मुसलमानों की संख्या 1.9 करोड़ है और यह अब मुख्य रूप से तृणमूल के साथ हैं. लोकसभा चुनाव में 88 प्रतिशत मुसलमानों ने तृणमूल को वोट दिया था. ऐसे अनुमाल लगाए जाते हैं कि राज्य में अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों की संख्या 80 लाख से डेढ़ करोड़ के बीच है जिन्होंने वोटर आईकार्ड बना रखे हैं और वोट देते हैं. यानी अगर सीएए बंगाल में लागू होता है तो जहां सभी बांग्लादेशी मुसलमानों को सारे अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा वहीं हिंदू प्रवासियों को नागरिकता मिल जाएगी. इसका सीधा-सीधा नुकसान तृणमूल को फायदा भाजपा को होगा. यह संख्या भाजपा के बंगाल विजय के सपने को पूरा करने के लिए पर्याप्त है. असम में एनआरसी में भारी संख्या में हिंदू बंगालियों के बाहर रह जाने के कारण बंगाल के हिंदू भी एनआरसी से डरे हुए थे. इसी का नतीजा है कि हाल में हुए बंगाल के उपचुनावों में भाजपा उन सीटों पर भी बुरी तरह हार गई जहां बांग्लादेशी हिंदुओं का वर्चस्व है. 1971 के बांग्लादेश युद्ध से पहले बांग्लादेश से भारत आए लोगों का भारत सरकार ने नागरिकता पंजीकरण भी कराया था. लेकिन युद्ध शुरू होने के बाद इसे बंद कर दिया गया. जिन लोगों का पंजीकरण हो गया उन्हें पूरी तरह नागरिकता भले नहीं मिली लेकिन विभिन्न सरकारों ने चुनावी फायदों के लिए धीरे-धीरे करके उन्हें बहुत सी सहूलियतें देनी शुरू कीं और उनके नाम मतदाता सूचियों में डलवा दिए. इस तरह उनके पास वोटर आईकार्ड आए और फिर सभी तरह के दस्तावेज उनके पास हैं. पंजीकरण बंद होने के बाद आए लोगों में ज्यादातर हिंदू थे और वे 40 वर्षों से नागरिकता दिए जाने की मांग करते आ रहे हैं. एक आंकलन के अनुसार पश्चिम बंगाल में रह रहे ऐसे लगभग 70 लाख बंगाली हिंदू, मातुआ समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और राज्य की कुल 295 विधानसभा सीटों में से 51 पर परिणाम तय करने की हैसियत में हैं. इन क्षेत्रों में सीएए पारित होने का जश्न भी मनाया जा रहा है. फिलहाल इन 51 सीटों में से 45 पर तृणमूल का कब्जा है यानी तृणमूल को बड़ा नुकसान और भाजपा को बड़ा फायदा हो सकता है. शायद यही कारण है कि इस कानून पर अपना रूख तय करने में ममता बनर्जी ने दो दिन लिए. सारे नफे-नुकसान का पूरा हिसाब लगाने के बाद ही वह सीएए के विरोध में उतरी हैं. जबकि भाजपा चाहती है कि चुनाव से पहले ही नागरिकता देने का काम पूरा हो जाए ताकि इन्हें वोटों में बदला जा सके.

हताशा में ममता बनर्जी संयुक्त राष्ट्र संघ से नागरिकता कानून को लेकर जनमत संग्रह कराने की मांग कर चुकी हैं. भाजपा को यहां अवसर मिलता है क्योंकि इस मुद्दे पर ममता का साथ भारत की शायद ही कोई पार्टी दे. अमित शाह कह चुके हैं कि 2024 तक एनआरसी पूरे देश में आएगा. कानून का जिस स्तर पर विरोध हो रहा है उसका अंकगणित पर मंथन पक्ष और विपक्ष दोनों ही खेमा करेगा. पर इतना तो तय है कि हिंदुवादी एजेंडे पर चलने वाली भाजपा के लिए यहां गंवाने को कुछ भी नहीं. अगर वह अपना मैसेज सही तरीके से देकर अपना नैरेटिव स्थापित कर पाई तो उसके दोनों हाथों में लड्डू होंगे. तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि एनआरसी ही अगला राममंदिर है जो भारतीय जनता पार्टी के लिए आने वाले कुछ वर्षों में सत्ता की सीढ़ियां सुगम बनाता रहेगा.

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